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नियमसार-प्राभूत
२६७ बृहत्प्रतिक्रमणे तथैव दृश्यते
"अरहतसक्खियं सिद्धसक्खियं साहुसक्खियं अप्पसक्खियं परसक्खियं देवतासक्खियं उत्तमतुम्हि इवं में महत्वदं सुव्यवं वळस्वयं होवु, णिस्थारय पारयं तारयं आराहियं चावि ते मे भवटु ।'
तात्पर्यमेतत्-अनेन व्यवहारनयप्रधानप्रतिक्रमणसूत्रोच्चारणबलेन गुरुदेवैः प्रवत्तं व्रतं दृढोकुर्वसा भवता सप्तमाविगुणस्थानेष्वारुह्य निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपे शुद्धबुद्धटंकोत्कीर्णज्ञायकैकभावमये चिन्मयचितामणिनामधेये स्वशुद्धात्मनि स्थिरत्वं विधातव्यम्। ईदृगवस्थाऽभावे प्रत्यहं विधिवत्प्रतिक्रमणाविक्रियाः करणोया एव ॥१२॥
उत्तमार्थप्रतिक्रमणलक्षणं सूचयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवाः
उत्तमअट्ठ आदा, तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्म । "तम्हा दु झाणमेव हि, उत्तमअटुस्स पडिकमणं ॥१२॥
बृहत्प्रतिक्रमण में यही भाव दृष्टिगोचर होते हैं--
अरहंत को साक्षी से, सिद्ध की साक्षी से, साधुओं को साक्षी से, आत्मा की साक्षी से, पर की साक्षी से और देवता की साक्षो से उत्तम अर्थ में मेरे यह महाव्रत सुव्रत होवें, दृढ़रूप होर्वे, निस्तार करनेवाले, पार करने वाले, तारने वाले और आराधनारूप भी तुम्हारे लिये-हमारे लिये होवें।" ।
तात्पर्य यह हुआ कि इस व्यवहारनय प्रधान प्रतिक्रमणसूत्रों के उच्चारण के बल से गुरुदेव के द्वारा दिये गये व्रतों को दृढ़ करते हुए आपको सातवें आदि गुणस्थानों में आरोहण करके निश्चयप्रतिक्रमणरूप शुद्ध, बुद्ध, टंकोत्कीर्ण, ज्ञायक एकभावमय चिन्मय-चितामणि नामवाले स्वशुद्धात्मा में स्थिरता करनी चाहिये । इस प्रकार की अवस्था के अभाव में प्रतिदिन विधिवत् प्रतिक्रमण आदि क्रिया करते हो रहना चाहिये ।।९२॥
श्री कुन्दकुन्ददेव उत्तमार्थ प्रतिक्रमण का लक्षण बता रहे हैं--
अन्वयार्थ--(उत्तमअळं मादा) उत्तम अर्थ आत्मा है (मुणिवरा तम्हि ठिदा कम्मं हणदि) मुनिराज उसमें स्थित होकर कर्मों का नाश करते हैं । (तम्हा दु झाण मेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं) इसलिए ध्यान ही निश्चितरूप से उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है। १. पाक्षिक प्रतिक्रमण ।