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नियमसार-प्रामृतम्
२६५ तत्रादिदयथितिका निश्चलमारिप संपाय परमसामायिकभावनापरिणतो भवति, तदा सर्वान् बंधहेतून् विपास्यन् परमस्वातन्त्र्यसुखमनुभवन् परमतृप्तो भवतीति ज्ञात्वाऽनादिवासनावासितः संस्कारः परिहर्तव्यः, स्वात्मनि स्वस्यैव संस्कारो दृढीकर्तव्यश्वेत्यभिप्रायः ॥९१॥ पुनः अधुना जीवेन कि कर्तव्यमिति प्रश्ने सत्ति कथयन्त्याचार्याः
मिच्छादसणणाणचरितं चइऊण गिरवसेसेण ।
सम्मत्तणाणचरणं, जो भावइ सो पडिक्कमणं ॥९२॥ स्याद्वाक्षचन्द्रिका
मिच्छादसणणाणचरित्तं-पंचविधसंसारसंतरणमूल कारणं मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रम् । गिरवसेसेण चइऊण-सर्वथा परिपूर्णतया त्यक्त्वा । जो सम्मत्तणाणचरणं भावह-य: करपात्रभोजी निरम्बरो मुनीश्वरः सम्यग्दर्शनजानचारित्रं, कारणकारणसमयसारं भेदरत्नत्रयं कारणसमयसारमभेदरत्नत्रयं च भावयति, सो पडिक्कमणंस एव नियमेन प्रतिक्रमणस्वरूपो जायते ॥१२॥ उसी का ज्ञान और उसी में निश्चल स्थिति रूप निश्चयचारित्र को प्राप्त करके परमसामायिक भावना से परिणत हो जाता है, तब संपूर्ण बंध-हेतुओं को नष्ट करते हुए, तथा परमस्वतंत्र सुख का अनुभव करते हुए परमतृप्त हो जाता है । ऐसा जानकर अनादिकालीन बासना से हुए संस्कारों को छोड़ना चाहिये और अपनी आत्मा के हो संस्कार को दृढ़ करना चाहिये ।।११।।
पुनः अब जीव को क्या करना चाहिये ? ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य कहते हैं
__ अन्वयार्थ (जो णिरवसेसेण मिच्छादसणणाण चरितं चइऊण) जो संपूर्णरूप से मिथ्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र को छोड़कर (सम्मत्तणाणचरणं भावइ) सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को भाते हैं, (सो पडिक्कमणं) वे साधु प्रतिक्रमण हैं ।
टोका--पांच प्रकार के संसार में संसरण का मूल कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र है । जो करपात्र में आहार लेने वाले, निर्वस्त्र, मुनीश्वर इन मिथ्यात्व आदि को परिपूर्णतया छोड़कर सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र को, अर्थात् कारण कारण समयसारस्वरूप भेदरत्नत्रय को और कारण समयसाररूप अभेदरत्नत्रय को भाते हैं, वे ही नियम से प्रतिक्रमणस्वरूप हो जाते हैं ।