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नियमसार-प्राभूतम्
२६३ योगा बंधकारणभूताः संसारहेतवो भावा एवं भाविताः कृताः कारिता अनुमोदिता
च । पुनः किन भाविताः ? जोवेण-काललब्ध्याचभावेन जोबेन, सम्मत्तपदिभावा अभाविया होति-सम्यक्त्वज्ञानचा रेत्रादिभावा अभावता भवन्ति ॥९॥
इतो विस्तरः-अत एवं प्रोक्तं गौतमस्वामिभिः प्रतिक्रमणसूत्रे
"अभावियं-भामि अभावितमनायो संसारे परिभ्रमता मया यत्कवाचिकपि न भावित नाभ्यस्तं सम्यग्दर्शनादि तावयाम्यम्यस्यामि । भावियं-भाषतिमनादौ संसारे यत्सर्वदाऽभ्यस्तं मिथ्यावर्शनादि सत्, ण भावमि- भावयामि नाभ्यस्यामि'।"
श्रीपद्मनन्द्याचार्येणापि जिनदेवस्य चरणयोर्याचना कूर्यता प्रोक्तं--
इंद्रत्व' च निगोवतां च बहुधा मध्ये तथा योनयः, संसारे भ्रमता चिरं यदखिलं प्राप्ता मयानंतशः।
लिये कारणभूत संसार के हेतु हैं, इन्हों भावों को भाया है-इन्हीं भावों को स्वयं किया है, पर से कराया है और करते हुए को अनुमोदना दी है ।
प्रश्न-पुन: क्या नहीं भाया है ?
उत्तर--काललब्धि आदि के अभाव से इस जीव ने सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भावों को नहीं भाया है।
इसी को कहते हैं-- श्रीगौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण सूत्र में यही बात कही है
"अभावित को भाता हूँ--अनादि संसार में भ्रमण करते हुए मैंने जिन भावों को कदाचित् भी नहीं भाया है, जिनका अभ्यास नहीं किया है, ऐसे जो सम्यग्दर्शन आदि हैं, उनको भाता है---उनका अभ्यास करता हूं । और जो भावित हैं, अनादि संसार में जिनका सदा हो अभ्यास किया है, ऐसे जो मिथ्यादर्शन आदि हैं, उनको नहीं भाता हूँ, न उनका अभ्यास हो करता हूँ।
श्री पद्मनंदि आचार्य ने भा जिनदेव के चरणों में याचना करते हुए कहा है--
"हे भगवन् ! इस संसार में चिरकाल से परिभ्रमण करते हुए मैंने बहुत बार इंद्रपद को पाया है और बहुत बार निगोदपर्याय को प्राप्त किया है तथा इंद्र१. प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी ।