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नियमसार-प्राभृतम्
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तात्पर्यमेतत्-आतंध्यानं यथा न स्यात्तथैवाचरन्तः सन्तो मुनय आज्ञापायविपाक संस्थान विचयेषु किमपि ध्यानमाश्रयन्तस्तिष्ठेयुः । चित्तस्यैकाग्रताभावे स्वाध्यायं षडावश्यक क्रियां च कुर्वन्तः सावधानतथा विहरेयुस्तथा च कवा कथं वा स्वात्मध्यानामृतं पास्याम्यहमिति भावनया पुरुषार्थेन च कस्मिश्चिदपि दिवसे भवे या ध्यानसिद्धिर्भविष्यत्येवेति मत्वा दुर्यानवंचनार्थं जिनचरणशरणं गृहीतव्यम् । तत्वविचारकाले सामायिके या निश्चय प्रतिक्रमणभावनाऽपि कर्तव्या ।
तथाहि
वचनरचनारूपद्रव्यप्रतिक्रमणविवर्जितरागादिभावरहितव्रतविराधनारहित चतुर्विधाराधनासहित स्वशुद्धाराधनापरिणतानाचारविवजितयत्याश्चारपरिणतोन्मार्ग रहित जिन मार्गस्थित त्रिशल्यविवर्जितनिः शल्य भाव स्थिता गुप्तिभावविवजित त्रिगुशि गुप्तातं रौद्रध्यानशून्यधर्म्य शुक्लध्यान परिणत निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूपोऽहम् ।
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तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार से आर्त ध्यान न हो सके, ऐसा ही आचरण करते हुए मुनिराज आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविश्चय और संस्थानविचय इनमें से किसी भी ध्यान का आश्रय लेते हुए रहें । चित्त की एकाग्रता के अभाव में स्वाध्याय और छह आवश्यक क्रियाओं को करते हुए सावधानीपूर्वक बिहार करें और " कब अथवा कैसे मैं अपनी आत्मा के ध्यान रूपी अमृत को पीऊंगा ?" ऐसी भावना से तथा पुरुषार्थं से किसी न किसी दिन अथवा किसी न किसी भव में ध्यानसिद्धि होगी ही — ऐसा मानकर, दुर्ध्यान से बचने के लिये जिनराज के चरणों की शरण ग्रहण करना चाहिये ।
तत्त्वविचार के समय अथवा सामायिक में निश्चय प्रतिक्रमण की भावना भी करते रहना चाहिये । उदाहरणस्वरूप -
मैं बचनरचना रूप द्रव्य प्रतिक्रमण से रहित, रागादि भाव से रहित, व्रतों की विराधना से रहित, चतुर्विध आराधना से सहित, निज शुद्ध आत्मा की आराधना से परिणत, अनाचार से रहित यति के आचार से परिणत, उन्मार्ग से रहित जिनमार्ग में स्थित, तीन शल्य से रहित, निःशल्यभाव में स्थित, अगुप्ति भाव से रहित तीन गुप्ति से सहित आर्त- रौद्र दुर्ध्यान से रहित, धम्र्म्य व शुक्ल ध्यान से परिणत निश्चय प्रतिक्र मणस्वरूप हूँ ।