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नियमसार-प्राभृतम् स्थाद्वावचन्द्रिका--
उम्मन्गं परिचत्ता जो दु जिणमन्गे थिरभाव कुण दि-कपिलशाक्यादिकथितनित्यानित्यै कांतादिमिथ्यामार्ग उन्मार्गः कथ्यते, पंचविघसंसारभ्रमणकारणस्वात् । तं त्यक्त्वा यो मुनिजिनमार्गे अनेकान्तस्वरूपे जिनशासने भेदाभेदरत्नत्रयमार्गे वा स्थिरभावं शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तववोषविजितनिश्चलपरिणामं करोति, सो पडिकमणं उच्चइ-स एव निग्रंन्यो दिग्वस्त्रधारी महायतिः प्रतिक्रमणमिति निगद्यते । जम्हा पडिकमणमओ हवे-प्रतिक्रमणमयत्वादिति हेतोः असौ मुनिः परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति ।
तथैव चोक्तं ब्रहत्प्रतिक्रमणे--
"उम्मग्गं परिवजामि-सम्यग्दर्श नज्ञानाचारित्रलक्षणो जिनोक्तः स्वर्गापवर्गमार्गः। ततोऽन्य एकान्तवादिपरिकल्पित उन्मार्गः, तं परिवर्जयामि । जिणमग उयसंपज्जामि-उक्तप्रकारं तु जिनमार्गमुपसंपद्ये"
निश्चयनयेन ज्ञानदर्शनस्वरूपस्यशुद्धात्मनो व्यतिरिक्तो मार्ग उन्मार्गः
टीका--कपिल, बुद्ध आदि के द्वारा कथित नित्य-अनित्य आदि एकांतरूप मिथ्यामार्ग उन्मार्ग कहलाता है क्योंकि वह पाँच प्रकार के संसार-भ्रमण का कारण है, जो मुनि इस उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में अनेकांतस्वरूप जिनशासन में या भेद-अभेदस्वरूप रत्नत्रय मार्ग में स्थिरभाव करते हैं---शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि-प्रशंसा और संस्तव--इन पाँच दोषों से रहित होकर निश्चल परिणाम रखते हैं, वे ही दिशावस्त्रधारी निग्रंथ महायति 'प्रतिक्रमण' इस नाम से कहे जाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय होने से परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूप हैं।
बृहत्प्रतिक्रमण में भी कहा है-- ___"मैं उन्मार्ग को छोड़ता हूँ, जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र लक्षण मार्ग स्वर्ग-अपवर्ग को देने वाला होने से 'मार्ग' है । इससे विपरीत एकांतवादियों द्वारा कल्पित मार्ग उन्मार्ग हैं, उन्हों को छोड़ता हूँ और उपर्युक्त रत्नत्रय जिनमार्ग को स्वीकार करता हूँ।"
निश्चयनय से ज्ञानदर्शनस्वरूप अपनी शुद्धात्मा से व्यतिरिक्त जो मार्ग है १. प्रतिक्रमण अन्यत्रयी।