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नियमसार-प्रामृतम्
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बृहत्प्रतिक्रमणे प्रोक्तमेव गुरुगणघरदेवैः
"विराहणं वोसिरामि-विराधना रस्नत्रयविषये मनोयाक्कायकृतां सावद्यां वृत्तिमुत्सृजामि स्पज । आरह अनुद्रुषि-मध्यस्थासय सहिषये निरवद्यां मनोवाक्कायवृत्तिमम्युत्तिष्ठाम्यनुतिष्ठामि ।"
तात्पर्यमेतत् ---यदा साधुः निर्दोषमूलगुणान् पालयित्वा सर्वामपि विराधनां मुक्त्वा चतुर्विधाराधनाबलेन सहजविमलकेवलज्ञानदर्शनमये निजात्मनि स्थिरत्वं लभते, तदैवाराधनायां वर्तते । तस्मिन्नवसरे निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं लब्ध्वा तदपेणैव परिणतीभूय प्रतिक्रमणस्वरूपो निगद्यते, इति ज्ञात्वा पंचपरमगुरुपादमूले सदैव एतादृशी भावना कर्तच्या यत् मयि निश्चयाराधना सत्वरं प्रकटीभूयादिति ॥८४॥ अधुनाऽनाचारप्रवृत्तिम्यो बिमोचयन्तः मुनीनुपदिशन्त्याचार्यवर्याः
मोत्तूण अणायार, आयारे जो दु कुणदि थिरभाव । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८।।
बृहत्प्रतिक्रमण में श्री गुरुगणधर देव कहा ही है--
"मैं विराधना को छोड़ता हूँ--रत्नत्रय के विषय में मन-वचन-काय-कृत सदोष वृत्ति का त्याग करता हूँ और आराधना में स्थित होता हूँ-रत्नत्रय को आराधना में स्थित होता है, उसी के विषय में निर्दोष मन वचन काय की प्रवृत्ति का अनुष्ठान करता हूँ।"
__ तात्पर्य यह हुआ कि जब साधु निर्दोष मूल गुणों का पालन करके सभी विराधना को छोड़ कर चार प्रकार की आराधना के बल से सहज विमल केवल ज्ञानदर्शनमय निज आत्मा में स्थिरता प्राप्त कर लेते हैं, तभी वे आराधना में वर्तन करते हैं । उसी काल में निश्चयप्रतिकमण के स्वरूप को प्राप्त कर उसी रूप से परिणत होकर प्रतिक्रमण स्वरूप कहे जाते हैं।
ऐसा जानकर पंचपरमगुरु के पादमूल में सदा ही ऐसी भावना करनी चाहिये कि मुझमें निश्चय आराधना शीघ्र ही प्रगट होवे ।। ८४!
अब आचार्यवर्य मुनियों को अनाचार-प्रवृत्ति से छुड़ाते हुए उपदेश कर
अन्वयार्थ--(अणायार मातंग आयारे जो दु थिरभावं कुणदि) अनाचार को छोड़ कर जो मुनि आचार में स्थिर भाव करते हैं. (सो पडिकमणं उच्चइ)