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नियमसार-प्राभूतम्
अघुना निश्चयप्रतिक्र मणलक्षणं लक्षयन्त्या चार्यदेवाः—
मोत्तूण वयणरयणं, रागादीभाववारणं किच्चा | अप्पा जो झार्यादि, तस्स दु होदि ति पडिकमणं ॥ ८३ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका टीका
मोत्तूण वयणरयणं- " जीवे प्रमादजनिताः प्रचुराः प्रदोषाः ", " इच्छामि भत्ते ! देवसियम्मि आलोवेजं" घेत्यादिवचनरचनारूपं द्रव्यप्रतिक्रमणं मुक्त्वा, जो यः कश्मित साधुः, रागादीभाववारणं किच्चा - वनानुभूतपंचेन्द्रियथिषयाकांक्षानिदानप्रभूतिसमस्त प्रशस्ता प्रशस्तविकरूपरूपाणां विभावभावानां निवारणं कृत्वा च, अप्पाणं झायदि - स्वशुद्धात्मानं ध्यायति, परमधर्म्मध्यानेन शुक्लध्यानेन वा तिष्ठति, तस्स दु पडकमणं ति होदि - तस्य महायोगिन एक निश्चयप्रतिक्रमणम् इति नाम्ना चतुर्थी आवश्यक क्रिया परमार्थेन सिद्धयति । तथाहि---ये नगाराः प्रथमावस्थायां श्रीगौतमस्वामिभिः प्रोक्तं वचन रचनारूपं ब्रव्यप्रतिक्रमणं भावपूर्वकं कुर्वन्ति त एव शुद्धो
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अब आचार्यदेव निश्चयप्रतिक्रमण का लक्षण बतला रहे हैं
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अन्वयार्थ -- ( जो वयण रयणं मोत्तूण ) जो वचनरचना को छोड़कर, ( रागादोभाववारणं किच्चा ) रागादि भावों को भी दूर कर, (अप्पाणं झार्यादि) आत्मा का ध्यान करते हैं, ( तस्स दु पडिकमणं होदि त्ति) उनके ही प्रतिक्रमण होता है ।
टीका--" जीवे प्रमादजनिताः प्रचुराः प्रदोषाः यस्मात् प्रतिक्रमणतः प्रलयं प्रयांति |" इत्यादि, अथवा " इच्छामि भंते! देवसियम्मि आलोचेउं" इत्यादि वचनरचनारूप जो द्रव्य प्रतिक्रमण है, उसको छोड़कर जो कोई साधु देखे, सुने और अनुभव में आये हुए ऐसे पंचेन्द्रिय विषयों की आकांक्षा, निदान आदि सर्व शुभ-अशुभ विकल्परूप विभाव-भावों को दूर कर परमधर्म्यध्यान अथवा शुक्लध्यान के द्वारा अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं, उन महायोगियों के ही निश्चय प्रतिक्रमण इस नाम से चौथी आवश्यकक्रिया परमार्थ से सिद्ध होती है ।
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उसी को कहते हैं-
जो अनगार मुनि प्रथम अवस्था में श्री गौतम स्वामी के द्वारा कहे गये वचनरचनारूप द्रव्य-प्रतिक्रमण को भावपूर्वक करते हैं, वे ही शुद्धोपयोग में स्थित होकर