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नियमसार- प्राभृतम्
आर्षे श्रूयमाणत्वात् । ततश्च कत्ता ण हि कारइदा कतीणं व अणुमंता न चेषां कर्ता न कारयिता, न कर्तृणां अनुमतिकर्ता चाहम् ।
एवमेव णाहं कोहो भाणो ण चेव भाया ण लाहो हं होमि-अहं अनंतानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनचतुविधक्रोधकषायोदयेन क्रोधभावेन न परिणमामि । एतच्चतुर्विधमानकषायोदयेन मानरूपोऽपि न भवामि, चतुविधमायाकषायोदयेन मायापरिणामेनापि न विपरिणमामि तथा च चतुविधलोभकषायोदयेन न च लोभभावमाददे । इमे सर्व कषायोदयजनितभावा न च मे स्वभावाः, परनिमित्तोद्भवत्वात् । एतादृशा अन्येऽपि येऽसंख्यात लोकप्रमाणपरिणामास्ते सर्वेऽपि मत्तो भिन्ना एव । एक भावानां ण हि कता कारइदा कतोर्ण व अणुमंता - न खलु कर्ता न कारयिता कर्तॄणां ने अनुमंता भवामि कदाचिदपि ।
ताः पर्यमेतत्--- नारक तिर्यङ्मनुष्यदेवपर्याय चतुर्दशमार्गणागुणस्थानजीवसमासस्थान रहितो, बालतरुणवृद्धावस्थारहितः, रागद्वेष मोहक्रोधमानमायालो भद्रव्य कर्म
उत्तर - कर्म का उदय ही कारण है, ऐसा आर्ष ग्रन्थों में सुना जाता है । इसी हेतु से मैं न इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न अनुमति देने वाला हूँ । इसी प्रकार से अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन -- इन चार प्रकार के क्रोध कषायों के उदय से मैं क्रोधभाव से परिणत नहीं होता हूँ ! इन्हीं अनंतानुबंधी आदि चतुविध मान कषायों के उदय से मैं मानरूप भी नहीं होता हूँ । इन्हीं चतुविध माया- कषायों के उदय से मैं मायापरिणाम से भी परिणमन नहीं करता हूँ और इन्हीं चतुविध लोभ कषायों के उदय से मैं लोभ-भाव को भी ग्रहण नहीं करता हूँ । कषायोदय से उत्पन्न हुए ये सभी भाव मेरे स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि ये परनिमित्त से उत्पन्न होते हैं । इन्हीं के सदृश अन्य भी जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हैं, वे सभी मेरे से भिन्न ही हैं ।
मैं कभी भी इन भावों का न कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ और न करते हुए जनों को अनुमोदना देने वाला हूँ ।
तात्पर्य यह हुआ कि -
मैं नारक-तियंत्र - मनुष्य - देव पर्याय, चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान, जीवसमानस्थान से रहित हूँ । बाल, तरुण, वृद्ध अवस्था से रहित, राग, द्वेष, मोह,