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नियमसार-प्राभृतम्
यद्यपि सर्वेऽपि देवाः सदा तरुणा एव, सर्वेऽपि नारकाः निरंतर जीर्णशीर्णगलितगात्रत्वात् वृद्धा एव । तिर्यचः तिस्रः अवस्थाः प्राप्नुवन्ति, साधारण मनुष्याश्च तिसृभिरवस्थाभिः परिणमन्ति मनुष्येषु च ये विशेषास्तीर्थंकरचक्रवतिबलदेवनारायणप्रतिनारायणादयः शलाका पुरुषाः कामदेव दयश्च ते बालतरुणावस्थामंत्र लभन्ते, न च वृद्धत्वम्, तथापि शुद्धनिश्चयनयेन सर्वेऽपि संसारिणी जीवा आभिविरहिता एव शश्वत्कर्ममलै रस्पृष्टत्वात् ।
तहि दृश्यमाना अवस्थाः केषामिति चेत्, पुद्गलानामेव । उक्तं च पूज्यपादाचार्यै:--
न मे मृत्युः कुतो भो तिनं मे व्याधिः कुलो व्यथा ।
नाहं बालो न वृद्धोsहं न युवैतानि पुद्गले ॥" एतदवबुध्य शरोरात् तदाश्रितबंधुवर्गाच्च ममकारस्त्यक्तव्यः ||७९ ॥
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हूँ, इसीलिए मैं इन पर्यायों का कारण भी नहीं हूँ | मैं इन बाल-वृद्ध-तरुण अबस्थाओं का न कर्ता हूँ, न करानेवाला हूँ और न अनुमति देने वाला हूँ ।
यद्यपि सभी देवगण सदा तरुण ही रहते हैं, सभी नारको निरंतर जीर्णशीर्ण, गलित शरीर वाले होने से वृद्ध जैसे ही हैं । तिर्यञ्च जीव तीनों अवस्थाओं को प्राप्त करते रहते हैं । साधारण मनुष्य भी तीन अवस्थाओं से परिणमन करते हैं और मनुष्यों में जो कोई विशेष मनुष्य -- तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण आदि शलाकापुरुष हैं और कामदेव आदि महापुरुष हैं, वे बाल्यावस्था और तरुणावस्था को ही प्राप्त करते हैं, वे वृद्ध नहीं होते हैं । फिर भी शुद्ध निश्चयनय से सभो संसारी जीव इन पर्यायों से रहित ही हैं, क्योंकि इस नय से सभी जीव हमेशा शाश्वत काल कर्ममल से अस्पृष्ट हो हैं ।
शंका -- पुनः ये दिख रही अवस्थायें किनकी हैं ? समाधान - पुद्गलों की ही हैं ।
श्री पूज्यपाद आचार्य ने कहा भी है
मुझे मृत्यु नहीं है तो भय किससे ? मुझे रोग नहीं है तो पीड़ा कैसे होगी ? न मैं बालक हूँ, न वृद्ध हूँ और न युवा हूँ, ये सब पर्यायें पुद्गल में होती हैं । यह जानकर शरीर से और शरीर से संबंधित बंधुवर्गों से ममकार का त्याग कर देना चाहिये ।। ७९ ।।
१. इष्टोपदेश, २९ व श्लोक |