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नियमसार- प्राभृतम्
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णता सती भव्यजीवं नियमेन एभ्यो मोचयति इति अवबुध्य सततं भेदविज्ञानं
कर्तव्यम् ॥ ७८ ॥
तहि अहं शिथिलमा देवर
णाहं बालो बुड्ढो, ण चेत्र तरुणो ण कारणं तेसिं । कत्ता पण हि कारइदा, अणुमंता णेत्र कत्तीणं ॥ ७९ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका टीका-
अहं बालो बुड्ढो ण - अहं मनुष्यगती आगत्य कदाचिद् तिर्यग्गतौ वा गरा न जातु बा भवामि, न जीर्णशीर्णदेहो वृद्धो वा भवामि ! तहि किं सदा तरुण एव इति चेत् ? ण वेव तरुणो-यौवनपरिणतस्तरुणोऽपि न जातुचित् भवामि । शुद्धचिन्मयधातुनिर्मित चैतन्य मूर्तिस्वरूपत्वात् पुरुषाकारो भूत्वापि निराकार एव अस्मि । तेसि कारणं ण- तेषां पर्यायाणां कारणरूपभावेन अहं न परिणमामि । णहि कत्ता कारदा व कत्ती अणुमंता अहं एतब्बालवृद्ध तरुणावस्थानां न खलु कर्ता न कारयिता न चैवानुमन्ता भवामि ।
से समझ लेना चाहिये । वास्तव में गोम्मटसार के जीवकांड और कर्मकांड का अच्छी तरह स्वाध्याय कर लेने पर ही इन नियमसार आदि अध्यात्म ग्रंथों का अर्थ ठीक से समझ में आ सकता है ||७८||
तो फिर मैं शिथिल गात्रकला और दीनता का पात्र ऐसा वृद्ध होता हूँ या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर सूरिवर्य उत्तर देते हैं
अन्वयार्थ --(अहं बाली बुड्ढो ण) मैं न बालक हूँ, न वृक्ष हूँ, (ण चैव इनका कारण हूँ। ( णहि कत्ता ( कत्तीणं णेव अणुमंता) और न
तरुणो ण ते सिं कारणं) न तरुण ही हूँ और न कारइदा ) न इनका कर्ता हूँ न कराने वाला हूँ, करने वालों को अनुमति देने वाला ही हूं ।
टीका- मैं मनुष्य गति में आकर अथवा कदाचित् तिर्यंच गति में जाकर न बालक होता हूँ, न जोर्ण-शीर्ण देह वाला वृद्ध ही होता हूँ और न कभी भी युवावस्था से सहित तरुण ही होता हूँ ।
मैं सदा शुद्ध चिन्मय धातु से निर्मित चैतन्यमूर्तिस्वरूप होने से पुरुषाकार होकर भी निराकार ही हूँ ।
इन बाल वृद्ध तरुण पर्यायों के कारणरूप से कभी में परिणमन नहीं करता