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नियमसार-प्राभुतम् स्थाद्वादचन्द्रिका टीका
अहं मग्गणठाणो ण-व्यवहारनयेन गतीन्द्रियकायादिचतुर्दशमार्गणाभेवेषु कतिपयभेदपरिणतोऽपि अहं निश्चयनयेन मार्गणास्थानानि न भवामि । अहं गुणठाण ण-यद्यपि मिथ्यात्वप्रभूत्ययोगिपर्यन्त चतुर्दशगुणस्थानस्यान्तर्गता एव केवलिनो भगवन्तः, तथापि शुद्धनयेनाहमपि गुणस्थानभावेन न परिणमामि । जोत्र ठाणो ण-यद्यपि एकेन्द्रियादिपंचेन्द्रियपर्यन्ताश्चतुर्दश अष्टानवतिर्वा जीवसमासा अर्हन्तोऽपि तेषामन्तीना एव, तथापि शुद्धनयेन अहमपि जीवसमासस्य किमपि स्थानं न गृहामि ।
एषां मार्गणागुणस्थानजीवसमासानां ण हि कत्ता कारइदा कत्तोणं अणुमंता णेव-नाहं कर्ता न कारयिता, कर्तृणां जनानां अनुमन्ता न एव । द्रश्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितत्वात् । ईदग्भेदविज्ञानभावनया स्वशरीरादपि निर्ममत्वभावमभ्यसाम्यहम् ।
एषा भावना प्रमत्तमुनिपर्यन्ता सविकल्पा, तत्पश्चात् निर्विकल्परूपेण परि
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टीका-व्यवहारनय से गति, इंद्रिय, काय आदि चौदह मार्गणाभेदों में कुछ भेद से परिणत होता हुआ भी मैं निश्चयनय से मार्गणास्थान नहीं होता हूँ। यद्यपि मिथ्यात्व, सासादन से लेकर अयोगकेबली गुणस्थानों तक चौदह गुणस्थानों के अंतर्गत ही केवली भगवान् हैं, फिर भी शुद्ध नय से मैं भी गुणस्थान भाव से परिणत नहीं है। यद्यपि एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय पर्यंत चौदह या अट्ठान वे जीवसमास हैं, अहंत भगवान् भो इन्हीं के अन्तर्गत हैं, फिर भी शुद्ध नय से मैं भी जीवसमास के कोई भी स्थान को ग्रहण नहीं करता हूँ।
इन मार्गणा, गणस्थान और जोवसमासों का न मैं कर्ता हूँ, न करानेबाला हूँ और करते हुए मनुष्यों को न मैं अनुमति देने वाला हूँ। क्योंकि में द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित हूँ। इस प्रकार की भेदविज्ञान-भावना से मैं अपने शरोर से भी निर्ममत्वभाव का अभ्यास करता हूँ।
यह भेदभावना प्रमत्तगुणस्थान के मुनियों तक सविका रूप रहती है, इसके आगे निर्विकल्परूप से परिणत होती हुई भव्य जीवों को नियम से इन मार्गणा आदि से छुड़ा देतो है । ऐसा जानकर सतत भेद-विज्ञान करना चाहिये ।
भावार्थ----मार्गणादि का विस्तार गोम्मटसार जीवकांड आदि ग्रंथों