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नियमसार-प्राभृतम् त्वेन "उत्तमअळं आदा" इत्यादिके द्वे गाथासूत्र वर्जूते । अनंतरम् अस्याधिकारस्योपसंहाररूपेण "पडिकमणणामधेये" इत्यादिनकेन गाथासूत्रेण द्रव्यप्रतिक्रमणस्य माहात्म्यं वर्णयन्ति आचार्याः, इति त्रिभिरन्तराधिकारैः समुदायपातनिका सूनिता भवति । अधुनायं जीवः मनुष्यो देवो वा ? इति प्रश्ने सति श्रीकुन्दकुन्ददेवा उत्तरं प्रयच्छन्ति
णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ॥७७॥ स्थाद्वादचन्द्रिका टीका
___ अहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ कत्ता ण-अत्र अन्यकर्तारः उत्तमपुरुषप्राधान्यं कृत्वा विभावभावानां कर्तृत्वादिकं निराकुर्वन्ति । अहं नारकपर्यायः तिर्यकपर्यायो मनुष्यपर्यायो देषपर्यायो वा न अस्मि । न एषां पर्यायाणां कर्ता भवामि । ण हि कार इदा-न कारयिता भवामि । कत्तीणं णेव अणुमंता-फर्तणां कर्वतां पुरुषाणां नैव अनुमन्ताअहम्, शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धचैतन्यधातुनिर्मितत्वात् । च्यवहारनयेन गतिशुद्धात्म-ध्यान ही प्रतिक्रमण है--इस कथन की मुख्यता से "उत्तम अर्द्ध आदा" इत्यादि दो गाथासूत्र हैं । अनन्तर इस अधिकार के उपसंहार रूप से "पडिकमणणामधेये" इत्यादि एक गाथासूत्र से आचार्यदेव द्रव्य-प्रतिक्रमण का माहात्म्य वर्णित करेंगे। इस प्रकार इन तीन अन्तराधिकारों द्वारा यह समुदायपातनिका सूचित की गयी है।
____ अब 'यह जीव मनुष्य है, अथवा देव' ऐसा प्रश्न होने पर श्रीकुन्दकुन्ददेव उत्तर देते हैं
अन्वयार्थ—(अहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ ण) मैं नारकी, तिर्यच, मनुष्य अथवा देवपर्याय-धारी नहीं हूँ। (कत्ता कारइदा ण हि णेव कत्तीणं अणुमंता) में इनका कर्ता और कराने वाला नहीं हूँ और न करते हुए जनों की अनुमोदना करने वाला है।
टोका-यहाँ पर ग्रन्थकार श्रीकुन्दकुन्ददेव उत्तम पुरुष को प्रधान करके विभाव भावों के कर्तृत्व का निराकरण कर रहे हैं । मैं नारकोपर्याय, तिर्यचपर्याय, मनुष्यपर्याय अथवा देवपर्यायरूप नहीं हूँ। न इन पर्यायों का कर्ता हूँ, न करने वाला हैं और न करते हुए जनों को अनुमोदना करने वाला ही हूँ। क्योंकि मैं शुद्धनिश्चयनय से शुद्ध चैतन्य धातु से निर्मित हूँ। व्यवहारनय से गतिनाम कर्म के उदय