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नियमसार-प्राभृतम्
१७५ अधुना पञ्चमहावतेषु तावत् प्रथमं महानतस्वरूपं निरूपयन्त्याचार्याः
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तण, परिणामो होइ पढमवदं ॥५६॥
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जीवाणं जाणिऊण-कुलपोनिजीवमार्गणास्थानादिषु जीवानां ज्ञात्वा । तस्सारंभणियतापरिणामो पलमतदं होड्-तस्य आरंभनिवृत्तिरूपः परिणामः प्रथमवतम् अहिसाख्यमहानतं भवतीति ।।
तद्यथा-कुलेषु योनिषु जीवसमासेषु गुणस्थानेषु मार्गणास्थानेषु आदिशब्देन पर्याप्तिप्राणसंज्ञायुरवगाहनादिषु नानाजीवभेदं ज्ञात्वा तस्य घातादेस्त्यागः मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिश्च तहिंसावतं भवति । अन्यजीवदयाप्रतिपालनेन स्वस्य मरणदुःखं विनश्यति, मरणाभावे पुनर्जन्मापि न संभवेत्, ततोऽयं जीवः शाश्वतकालं परमानंदैकसंपदं परमसुखमनुभवन् सन् पुनः संसार न प्रविशति । इवं ज्ञात्वा परमनिर्भयपरप्राप्तये सततं स्वपरसौख्यकरमहिसावतं परिपालनीयम् ।
___अब पांच महाव्रतों में आचार्यदेव सर्वप्रथम पहले महाव्रत का स्वरूपी निरूपित करते हैं
___ अन्वयार्थ----(जीवाणं) जीवों को (कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण) कुल, योनि, जीवसमास और मार्गणास्थान आदि में जानकर के (तस्स आरंभणि. यत्तणपरिणामो) उसके आरंभ से निवृत्तिरूप परिणाम होना (पढमवदं होइ) सो प्रथम व्रत है ॥५६॥
टोका-कुल, योनि, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि में जीवों को जानकर उनके आरंभ हिंसा के त्यागरूप परिणाम का होना यह पहला अहिंसा महानत है।
कुलों में, योनियों में, जीवसमास में, गुणस्थानों में, मार्गणाओं में, आदि शब्द से पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, आयु और अवगाहना आदि में नाना प्रकार के जीवों के भेद जानकर उनके घात आदि का मन बचन काय और कृत कारित अनुमोदना से त्याग कर देना यह अहिंसा महावत है। अन्य जीवों की दया के पालन करने से अपना मरण दुःख नष्ट होता है और मरण के अभाव में पुनर्जन्म भी संभव नहीं होगा । अनंतर यह जीव शाश्वत काल तक परमानंद एक संपत्तिरूप परमसुख का अनुभव करता हुआ पुनः संसार में प्रवेश नहीं करेगा। ऐसा जानकर परमनिर्भयपद को प्राप्ति के लिये सतत ही स्व-पर को सुखकारी यह अहिसाबत पालन करना चाहिये ।