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नियमसार-प्राभृतम्
१९३ पृथशरीरो भवितुं क्षमते । इति ज्ञात्वा प्रीतिपूर्वकं समितयः पालनीयाः संयतेः संपतिकाभिश्चेति ।
एवं सम्यक्प्रवृत्तिसूचनपरैः पञ्चभिः सूत्रः द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । इतः परं व्यवहारनिश्चयरूपं मुक्तिलक्षणं प्राप्यते ॥६५॥ इदानी मनोगुप्तिस्वरूपं प्रतिपादयन्ति--
कालुस्समोहसण्णारागहोसाइ असुहभावाणं । हैं परिहारो मणगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ॥६६॥
कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइ असुहभावाणं – फालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषादिअशुभभावानां । परिहारो मणगुत्ती-परिहारः त्यागः सा मनोगुप्तिः । वनहारणयेण परिकहियं यथोक्तलक्षणा इयं गुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता प्रोक्ता। कैः ? गणधराविवेवैः इति ।
तद्यथा--क्रोधाविकषायैः कलुषितमन्तःकरणं कालुष्यम् । दर्शनमोहोवयेन विपरीतभावः, चारित्रमोहोदयेन घासंयतभावे ममत्वपरिणामो वा मोहः । आहार
के बल से आत्मीय सुख का अनुभव करते हुए एक न एक दिन शरीर से भी मुक्त होकर अशरीरी सिद्ध भगवान् हो जाते हैं।
इस प्रकार सम्यक् प्रवृत्ति की सूचना को करने वाले पाँच सूत्रों द्वारा दूसरा अंतराधिकार समाप्त हुआ। अब इसके आगे व्यवहार निश्चयरूप गुप्ति का लक्षण निरूपित करते हैं ।।६५।।
अब मनोगुप्ति का स्वरूप कहते हैं
अन्वयार्थ—(कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाई असुहभावाणं) कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों का (परिहारो मणमुत्ती) परिहार करना मनोगुप्ति है, (ववहारणयेण परिकहिय) ऐसा व्यवहारनय से कहा है ॥६६॥
टीका- कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेषादि अशुभ भावों का त्याग करना मनोगुप्ति है । गणधरदेव आदि ने इस गुप्ति को व्यवहारनयापेक्षा कहा है । उसी को कहते हैं
क्रोधादि कषायों से अंतःकरण का कलुषित होना कलुषता है। दर्शन मोहनीय के उदय से विपरीत भाव का नाम मोह है । अथवा चारित्र मोह के उदय