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नियमसार-प्राभूतम्
२१३ अथवा अगुरुलघुनिमित्तेन षड्गुणहानिद्धिवशात् उत्पादव्ययरूपेण परिणताः सन्तोऽपि ध्रुवत्वादविनश्वराः शश्वत्कालले तय तिष्ठति स्थास्यमित बाशि लक्षण लक्षिताः सिद्धपरमेष्ठिनो भवन्ति । एतेषां परिज्ञानेन किम् ? इति चेत् ? एतान् ज्ञात्वा तेषां परमगुणानुरागेण आराधना कर्तव्या। किंच, तेषां आराधनया स्वस्थ कर्ममलकलंकितस्यात्मनः सिद्धिर्भविष्यति ।
उफ्तं च श्रीमत्कुन्दकुन्दवेवेरन्यत्र--'सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु'
सिद्धपरमेष्ठिनः में सिद्धि दिशंतु प्रयच्छन्तु इति प्रार्थनया ज्ञायते सिद्धपरमेष्ठिनः उपासनयैव भव्याः सिद्धि प्राप्नुवति गच्छन्ति इति ज्ञात्वा शुद्धनिश्चयनयेन स्वं सिद्धस्वरूपं मन्यमानेनापि स्वया व्यवहारनयेन सततं सिद्धानां भक्तिः कर्सच्या इति ॥७२॥
अधुना मोक्षस्य बीजभूतं पारिवं तस्याधारभूताचार्यपरमेष्ठिनः स्वरूप प्रतिपादयन्त्याचार्याः। पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिदलणा।
धीरा गुणगंभीरा आइरिया एरिसा होति ॥७३॥
__ क्योंकि नित्य हैं, शाश्वत हैं, वहाँ से कभी भी च्युत नहीं होंगे । अयवा अगुरुलघु गुण के निमित्त से षड्गुण हानि वृद्धि के वश से, उत्पाद-व्ययरूप से परिणमन करते हुए भी ध्रुब होने से अविनश्वर हैं । शाश्वत काल तक बहीं पर विराजमान हैं और रहेंगे । इन लक्षणों से सहित सिद्ध परमेष्ठी होते हैं।
इनके जानने से क्या प्रयोजन है ?
इन को जानकर उनके परम गुणों में अनुराग करते हुए उनकी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि उनकी आराधना से कर्मफल से कलंकित अपनी आत्मा की सिद्धि होगी।
श्रीमान् कुन्दकुन्ददेव ने भक्तिपाठ में कहा भी है-- "सिद्ध भगवान् हमें सिद्धि प्रदान करें।"
इस प्रार्थना से यह जाना जाता है कि सिद्ध परमेष्ठी की उपासनासे ही भव्य जीव सिद्धि को प्राप्त करते हैं। ऐसा जानकर शुद्धनिश्चयनय से अपने को सिद्ध समान मानते हुए भी तुम्हें व्यबहारनय से ही सतत सिद्धों को भक्ति करते रहना चाहिए ।।७२।।
___ अब आचार्यदेव मोक्ष का बीजरूप जो चारित्र है, उसके आधारभूत आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैं---
अन्वयार्थ-(पंचाचारसमग्गा) जो पाँच आचार से परिपूर्ण हैं, (पंचिंदिय