________________
२२५
नियमसार-प्रामृतम् शत्रोः शत्रुरपि, एकस्मिन्नेव क्षणे स्वपुत्रस्य पिता, स्वपितुः पुत्रोऽपि च । तथैव सरागसंयतो महामुनिः संसारशरीरभोगादिषु वैराग्यवान् घोर तपोऽनुष्ठानं कुर्वनपि अहंदादिषु अनुरागवान् जायते।
किंच, रत्नत्रयप्रथमावयवं सम्यक्त्वं भक्तिनाम्नापि कथ्यते । उक्तं च श्रीजयसेनाचार्य: समयसारस्यास्त्रवाधिकारे
"भक्तिः पुनः सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठयाराधनरूपा। निश्चयेन वीतरागसम्यग्दृष्टीनां शुद्धारमतत्त्वभावनारूपा चेति ।"
अन्यच्च नैतत्प्रकरणमप्रस्तुतं चरणकरणप्रधाना मुनयो भवंति । यथा पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिभेदेन त्रयोदशविधं चरणं कोयते, तथैव पंचपरमेष्ठिनमस्कारषडावश्यक क्रियाउसहोनिसहीभेदेन प्रयोदशविधं करणं चापि ।
अपने मित्र का मित्र है और अपने शत्रु का शत्रु है । एक ही समय में उसमें दोनों सम्बन्ध हैं। कोई भी मनुष्य अपने पुत्र का पिता है और पिता का पुत्र भी उसी एक समय में है।
उसी प्रकार सरागसंयमी महामुनि संसार शरीर ग आदि से दैसम्म वान होते हुए तथा घोर तपश्चरण का अनुष्ठान करते हुए भी अहंत आदि में अनुरागवान् देखे जाते हैं।
दूसरी बात यह है कि रत्नत्रय का प्रथम अवयव जो सम्यक्त्व है, वह "भक्ति" इस नाम से भी कहा गया है ।
श्री जयसेनाचार्य ने समयसार के आस्रव अधिकार में कहा है--
'भक्ति पुनः सम्यक्त्व कहा गया है, वह व्यवहार से सरागसम्यग्दृष्टियों को पंचपरमेष्ठी की आराधनारूप है और निश्चय से वीतराग सम्यग्दष्टियों में शुद्धात्म तत्त्व की भावनारूप है।'
दूसरी बात यह भी है कि इस अध्याय में पंचपरमेष्ठी की भक्ति का यह प्रकरण अप्रासंगिक नहीं है, क्योंकि मुनिगण चरण और करण में प्रधान होते हैं । जैसे पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति के भेद से चरण-चारित्र तेरह प्रकार का कहा गया है, वैसे ही पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक क्रिया, असही और निसही इनके भेद से करण (क्रिया) भी तेरह प्रकार का होता है ।