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नियमसार-प्रामृतम् अधुना व्यवहारचारित्रमाख्याय तदुपरांहतुकामा अग्रेतनस्य च विषय प्रतिज्ञातुकामाः श्रीकुन्दकुन्द
मुनीन्द्रा बुवन्ति ।
एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं । णिच्छयागाराम्स चरणं पत्तो उद पवस्वामि ।।७६॥
एरिसयभावणाए-ईदग्भावनायां पूर्वोत्तत्रयोदशविधचारित्रपंचपरमगुरुभक्तिरूपायां बवहारणयस्स चारित्तं होदि-व्यवहारनयापेक्षया चारित्रं भवति । एत्तो उडुलं-इतोऽग्रे, णिच्छयणयस्स चरणं पवक्खामि-निश्चयनयस्य चरित्रं प्रवक्ष्यामि ॥७६॥
मनु यतीनां त्रयोदशदिधचारित्रे घोरातिधोराचरणं प्रधानं तत्तु वैराग्यमार्गः, पंचगुर्वादीनां नमस्कारादयश्च भक्तिमार्गः । तहि वैराग्यमार्गेऽनुरागरूपस्य भक्तिमार्गस्य ग्रहणं कथं युज्यते ? अथवा महद्भिराचार्यैरप्रस्तुतं कथं प्रस्तूयते ?
नैतद्वक्तव्यम्; बैराग्यानुरामावपि परस्परमविरुद्धौ दृश्यते, कस्मिश्चित पुरुषे शत्रुमित्रसंबंधवत् पितृपुत्रसंबंधवद्वा। कश्चित् पुरुषः स्वमित्रस्य मित्रमपि सन् स्व
७६ की भी टीका ज्येष्ठ शुक्ल ५, श्रुतपंचमी के दिन पूर्ण करके चार अध्याय पूर्ण किये।
अब व्यवहार चारित्र को कहकर उसके उपसंहार की इच्छा रखते हुए और अगले अधिकार के विषय की प्रतिज्ञा के इच्छुक श्रीकुन्दकुन्ददेव मुनिराज कहते हैं--
अन्वयार्थ-(एरिसयभावणाए) इस प्रकार की भावना में (बबहारणयस्स चारित्तं होदि) व्यबहारनय का चारित्र होता है। (एत्तो उड़द) इसके आगे (णिच्छयणयस्स चरणं पत्रक्खामि) निश्चयनय का चारित्र कहूँगा ।।७६।।
टोका--इस प्रकार की पूर्वोक्त त्रयोदशविध चारित्र और पंच परमेष्ठी की भक्तिरूप भावना में व्यवहारनय की अपेक्षा से चारित्र होता है।
शंका-यतियों के तेरह प्रकार के चारित्र में घोर से घोर चारित्र प्रधान है वह वैराग्य मार्ग है । और पंच परमेष्ठी आदि को नमस्कार आदि करना भक्ति मार्ग है । पुनः वैराग्यमार्ग में अनुरागरूप भक्तिमार्ग को ग्रहण करना कैसे बने? अथवा महान् आचार्यश्री के द्वारा यह बिना प्रकरण का विषय क्यों लिया गया है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वैराग्य और अनुराग ये दोनों भी परस्पर में अविरोधी दिख रहे हैं । जैसे कि किसी पुरुष में मित्र और शत्रु का संबंध एक साथ है, अथवा पिता और पुत्र का संबंध एक साथ है। कोई पुरुष