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नियमसार - प्राभूतम्
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एवं पंचपरमेष्ठिनां जिनधर्मजिनागमजिनचैत्य चैत्यालयानां ऊर्ध्वाधोमध्यलोके सर्वेषां सिद्धायतनानां च, इह जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रस्थांतर्गतायंखंडे यानि कानिचित् निर्वाणक्षेत्रादीनि तेषाम्, तथा च मानुषोत्तरपर्यन्तमनुष्यलोकेऽपि च यानि कानिचित् सिद्धनिषीकास्थानानि तेषां सर्वेषां नमस्कारो दृश्यते ।
एषां सर्वेषां भक्त: किं फलम् ? इति चेत्, श्रूयताम् --
मम ।
इति स्तुतिपथातील श्रीभृतामर्हतां चैत्यानामस्तु कीर्तिः सर्वास निरोधिनी' ॥२२॥
एतत् श्रीगौतमस्वामिनामेदाख्यानमिति ज्ञात्वार्हदादिभक्तिप्रसादात् निजात्मतत्त्वसिद्धिविधान् ॥७५॥
इस प्रकार पंच परमेष्ठी, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और चैत्यालय ये इन ऊर्ध्व, अधो और मध्यलोक में जितने भी हैं, उन सभी सिद्धायतनों को, इस जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र के अन्तर्गत आर्यखण्ड में जो कुछ भी निर्वाण क्षेत्र हैं उनको, तथा मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त इस मनुष्य लोक में जिसने भी सिद्ध निषधिका स्थान हैं, उन सबको नमस्कार हो । इन सबकी भक्ति का क्या फल है ? ऐसा प्रश्न होने पर सुनिये --- ' इस प्रकार स्तुतिपथ को उल्लंघन कर चुके ऐसे अन्तरंग - बहिरंग लक्ष्मी के अधिपति देव और उनके जिनचैत्यों की स्तुति मेरे सर्व आस्रव का निरोध करने वाली है ।' ये भी श्रीगोतमस्वामी के ही वचन हैं। ऐसा जानकर अर्हत आदि की भक्ति के प्रसाद से अपने आत्म तत्त्व की सिद्धि करना चाहिए ॥ ७५ ॥
भावार्थ - वैशाख शुक्ला तृतीया (अक्षय तृतीया) वोरनिर्वाण संवत् २५०४, ईस्वी सन् १९७८ में मैंने इस नियमसार ग्रंथ की 'स्याद्वादचंद्रिका' नामक टीका लिखना प्रारम्भ किया था। फाल्गुन शुक्ला वीर सं० २५०५, सन् १९७९ में ७४ गाथा की टीका पूर्ण की। ७५वीं गाथा की आधी टीका हुई थी। पुनः वहाँ दरियागंज दिल्ली से चैत्र में विहार कर हस्तिनापुर आना हुआ । यहाँ सुमेरुपर्वत के जिनबिंबों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा वैशाख शुक्ला ३, अक्षयतृतीया से सप्तमी तक सम्पन्न हुई । अनंतर ५ वर्ष के लंबे अन्तराल के बाद पुन: ज्येष्ठ शुक्ला प्रतिपदा वीर सं० २५१०, सन् १९८४ के मैंने इस टीका में लेखन का कार्य प्रारंभ करके गाथा
१. चैत्यभक्ति ।