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नियमसार-प्राभृतम्
२२१ धवलायामपि अस्यैव समर्थन दृश्यते । तद्यथा
"न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्तेः श्रेयोहेतुत्वात्, अवैतप्रधाने गुणीभूलद्वैते वैतनिबंधनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च । आमश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्यनिबंधनत्वख्यापनार्थ वाहतामादौ नमस्कारः।" इति।। अथ च---
अर्हत्सिवाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्यः ।
सर्वजगबंधेभ्यो नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्यः ॥४॥ इत्वं चतुनिमातिसवानिधिः योक्तं चैत्यभक्तिपाठे। अत एसज्जायते एष एव क्रमः प्रमाणमनादिनिधनश्च ।
__ अधुना कृत्रिममनादिनिधनं सुदर्शनमेरुं महाशैलेन्द्रं हृदि स्मृत्वा तं परोक्षरूपेग पुनः पुनः नमस्कृत्य, इमं च नयनपथगोचरं कृत्रिमं तस्यैव प्रतिकृतिरूपं सुमेरुपर्वत तत्रस्थान त्रिभुवमतिलकजिनालयान् जिनप्रतिमाश्चापि त्रियोगशुख़या मुहर्मुहर्यदित्वा
धवला टीका में भी इसी का समर्थन देखा जाता है---
"शुभपक्ष के वर्तन में किया गया पक्षपात दोष के लिए नहीं है, क्योंकि वह मोक्ष का हेतु है। जहाँ अद्वैत-अभेद प्रधान है वहाँ द्वैत गौण हो जाता है, ऐसे अद्वेत प्रधान में द्वैतनिमित्तक पक्षपात नहीं बन सकता । अथवा आप्त की श्रद्धा में आप्त, आगम और पदार्थविषयक श्रद्धा की अधिकता हेतु है, ऐसा बतलाने के लिए ही अहंतों को आदि में नमस्कार किया है ।
और देखिये
"अहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये सर्वजगत् के बंध हैं, इन सर्वत्र विराजमान सभी पंच परमेष्ठी को नमस्कार होवे ।"
इस प्रकार से चार ज्ञानधारी श्री गौतमस्वामी ने चैत्यभक्ति में कहा है। इसलिए यह जाना जाता है कि यही क्रम प्रमाण है और अनादि-निधन है ।
अब अकृत्रिम और अनादि-निधन ऐसे सुदर्शनमेरु महागिरिराज को हृदय में स्मरण करके उसको परोक्षरूप से पूनःपुन नमस्कार करके सामने नेत्र से दिख रहे कृत्रिम, जो कि उस अकृत्रिम की प्रतिकृति रूप है, इस सुमेरुपर्वत की, उसमें स्थित त्रिभुवनतिलक नाम के सोलह जिनालयों की और उसमें विराजमान सर्व जिन१. धवला पु. १, पृ० ५५ । २. चैत्यभक्ति ।