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नियमसार-प्राभृतम्
आइरिया एरिसा होंति - आचार्याः ईदृशाः भवति । कीदृशास्ते ? पंचाचारसमग्गा-फञ्चाचारसमग्राः, पंचभिराधारैः परिपूर्णाः । पुनश्च कीदृशाः ? पंचिदियदंतिदप्पणिद्दलणा-पंचेन्द्रियदन्तिवर्प निर्वलना: पंचेन्द्रियाणि एव दंतिनः हस्तियत् उन्मत्तत्वात् तेषां दर्पः गर्वः तं नितरां दलन्ति चूर्णयन्तीति पञ्चेन्द्रियदंतिदर्प निर्दलनाः जितेन्द्रिया इति । पुनश्च ते कथंभूताः ? धीरा - धीराः उपसर्गपरीषहे संजाते सति धैर्यगुणोपेताः । पुनः किविशिष्टाः ? गुणगम्भीरा-गुणगंभीराः गुणैः गंभीराः अमित गुणसहिताश्च ।
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तथाहि--दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्याख्यपञ्चविधान् आचारान् स्वयं आचरन्ति परान् शिष्यान् आचरयन्ति चेति आचार्याः । उक्तं च मूलाधारे -- सदा आयारविद्दण्हू सवा आयरियं चरे । आयारमायावती आयरिओ तेण उच्चदे ॥
यः सवा आचारचित् सदा गणधरादिभिः आचरितं चरति पश्चविधाचारं पराइच आवश्यन् तेन कारणेन 'आचार्यः' इति उच्यते ।
दंतिदप्पणिद्दलणा ) पाँच इन्द्रियरूपी हाथी के दर्प का दलन करने वाले हैं, (धीरा गुणगंभीरा) धीर हैं, गुणों से गंभीर हैं, (एरिसा आइरिया होंति ) ऐसे आचार्य होते हैं । टोका - जो पाँच आचार से परिपूर्ण हैं, पाँचों इन्द्रियरूपी हाथी का गर्वदलन करने वाले - चूर्ण करने वाले होने से जितेन्द्रिय हैं, उपसर्ग परीषह के आ जाने पर धैर्य गुणों से सहित होने से धीर हैं, और अमित गुणों से सहित हैं ।
उसी को कहते हैं-- दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपआचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और अन्य शिष्यों को आचरण कराते हैं, वे आचार्य हैं।
मूलाचार में कहा भी है
जो सदा आचारवित् हैं, सदा आचारों का आचरण करते हैं और आचरण करवाते हैं, इसीलिए वे आचार्य कहलाते हैं ।
जो सदा आचार के ज्ञाता है, सदा गणधरदेवादि द्वारा आचरित आचार का पालन करते हैं और उन्हीं पाँच आचारों का अन्य शिष्यों से आचरण कराते हैं, इसी कारण वे आचार्य कहलाते हैं ।