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नियमसार-प्रभूतम्
अघूना बचोगुप्तिस्वरूपं प्रतिपाद्यते -
थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स
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पावहे उस्स ।
परिहारो वचगुत्ती अलियादिणियन्तिवयणं वा ॥ ६७ ॥
श्री राजचोरभत्त कहा दिवयणस्स - स्त्रीराजचोरभक्तकथा दिवचनस्य । कथंभूतस्य ? पावहेउरस - पापहेतोः पापात्रवकारणस्य । परिहारो बचगुत्ती - परिहारः त्यागः सैव बच्चोगुप्तिः । वा अलियादिशियत्तिवयणं - अथवा अलीक: दिनिवृत्तिवचनम्, अलीकादिर्वाजतं वचनं सापि वचोगुप्तिः कथ्यते इति ।
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तद्यथा - विषयाभिलाषावधिनी स्त्री सम्बन्धिनी या कथा सा स्त्रीकथा, तासां संयोगविप्रलंभहावभाव विलासयुक्तवचनवित्यासैः यत्किमपि संलपनं रागभावेन तदेवात्र गृह्यते, अन्यथा पुराणचरितादेः कर्तारः अज्जनासीतादिनारीणां सुखदु:खादिवर्णनं कुर्वन्ति, तत्र संयोग विप्रयोगाविश्वङ्गाररसस्थापि बाहुल्यं दृश्यते, तेऽपि आचार्याः स्त्रीकथादोषेण लिप्येरन्, किन्तु नैतत् साधु, अतो ज्ञायते रागभावेन या
अब वचोगुप्ति का स्वरूप कहते हैं--...
अन्वयार्थ - - ( थीराजचोरभत्तकहा दिवयणस्स पान हे उस्स) स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा और भोजनकथा आदि पाप के हेतु वचन का ( परिहारो वचगुत्ती) परिहार करना वचनगुप्ति है, (वा अलियादि नियत्तिवयणं) अथवा असत्य आदि वचनों का त्याग करना वचनगुप्ति है ||६७ ||
टीका -- पापात्र के लिए कारण स्त्रीकथा, राजकथा, चौरकथा और भोजनकथा इन चार कथाओं का परिहार करना वचनगुप्ति है अथवा असत्य आदि वचनों का त्याग करना भी वचनगुप्ति है । उसी को कहते हैं-
विषयों की इच्छा को बढ़ाने वाली स्त्री संबंधी जो चर्चायें हैं, वह स्त्री - कथा है । उन स्त्रियों के संयोग-वियोग, हाव भाव, विलासयुक्त वचनरचना के द्वारा जो रागभाव पूर्वक कुछ भी संलाप है, वही यहाँ लिया जाता है । अन्यथा नहीं तो पुराण, चरित आदि के रचयिता आचार्य अंजना, सीता आदि के रूप, सौंदर्य, सुख-दुःखादि का वर्णन करते हैं, उसमें संयोग, वियोग, शृंगार रस आदि की भी बहुलता देखी जाती है, वे भी स्त्रीकथा दोषी बन जायेंगे, किंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है । अतः यह जाना जाता है कि रागभाव से जो स्त्रियों की चर्चा है, वही "स्त्रीकथा " हैं ।