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नियमसार - प्राभूतम्
आविर्येषां ते परमाः सर्वोत्कृष्टाश्च ते गुणाः तैः सहिताः । पुनश्च किविशिष्टाः ? चोत्तिस अदिस अजुत्ता- चतुस्त्रिशद तिशययुक्ताः तीर्थकर प्रकृतिनामकर्मनिमित्तेन जन्मकाले संजाताः दशातिशयविशेषाः घातिकर्मक्षयेण जाताः दशातिशयविशेषाः, सदात्वे एव वेवकुलचतुर्दशातिशयविशेषाश्च ते चतुस्त्रिवतिशयास्तैर्युक्ताः इति एतादृशाः - भवन्ति अज्जिनेश्वराः ।
इतो विस्तरः- अरि मोहनीयथामे तस्व हल्ला अहिं अथवा पूजार्थका धातोः, अर्हति इन्द्रादिकृतपूजामिति अर्हन्तः । उक्तं च मूलाचारे'अरिति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए ।
रजहंता अरिहंति य अरहंतो तेण उच्वदे ॥४॥'
नमस्कारं अर्हन्ति, पूजायाः अर्हा योग्या भवति, लोके सुराणां मध्ये उत्तमा सर्वोत्कृष्टाश्च । रजसोः ज्ञानदर्शनावरणयोः हतारः, अरे: मोहकर्मणो हंतारः, अन्तरायस्य च हंतारः येन कारणेन तेन कारणेन 'अर्हन्त' इति उच्यन्ते । अर्हन्स ईदृशा भवन्तीति ज्ञात्वा किं कर्तव्यम् ? तस्मै नमोऽस्तु विधातव्यम् । उक्तं च
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से जन्म के दस अतिशय घातिकर्म के क्षय से प्रगट हुए दस अतिशय और उसी समय देवों द्वारा कृत चौदह अतिशय इन चौंतीस अतिशयों से युक्त हैं। महंत जिनेश्वर ऐसे होते हैं ।
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इसी को कहते हैं - अरि-मोहनीय कर्म उसका हनन करने से अरिहंत हैं । "अहं" धातु पूजा अर्थ में है । इससे जो इन्द्रादिकृत पूजा के योग्य हैं, वे अहंत कहलाते हैं | मूलाचार में कहा भी है
नमस्कार के योग्य होते हैं, लोक में सुरों द्वारा कृत उत्तम पूजा के योग्य हैं । रज और अरि का हनन करने से वे अरहंत कहलाते हैं । जो नमस्कार के योग्य हैं, पूजा के लिये योग्य हैं, उत्तम होने से सर्वोत्कृष्ट हैं, रज-ज्ञानावरण- दर्शनावरण को अरि-मोहकर्म को नष्ट करने वाले हैं और अंतराय कर्म के भी नाशक हैं, जिस कारण से इन कर्मों का हनन करने वाले हैं, उसी प्रकार से ये " अर्हत" इस प्रकार कहे जाते हैं ।
लोक में देवों में भी नष्ट करने वाले हैं,
प्रश्न- अर्हत ऐसे होते हैं, जानकर क्या करना चाहिये ? उत्तर - उन्हें नमोऽस्तु करना चाहिये । कहा भी है