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नियमसार-प्राभृतम् ततश्च यथामुनीनां सरागचारित्रे व्यवहारनिश्चयभेद आगमे दृश्यते, न तथा श्रावकस्य विकलचारित्र । अतो निश्चीयतां भवता ! अर्हन्मुद्रामन्तरेण निर्विकल्पसमाधिः, वीतरागचारित्रम, निश्चयरत्नत्रयम्, अभेबसंयमः, शुद्धोपयोगः, शुक्लध्यानम्, स्वरूपाचरणमिति नामतो यत्किमपि चारित्रं तत्तु सर्वथा अशक्यमेव ।
अयमत्राभिप्रायः - सहजविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपनिजपरमात्मपदस्य साक्षात् कारणभूतं वीतरागचारित्रमुपादेयम् । तसिद्धयर्थं च सरागचारित्र परमाबरेण गृहीतव्यम् । यावत्तन्न लभेत तावत्तदभ्यसनार्थ देशचारित्रमपि यथाशक्ति आवेयम् । अनेन क्रमेणैव स्वारनिनिर्भविष्यति नभा नाति निवि ऐतंयुगीनां चारित्रशालिनामपि भक्तिः, पूजा, स्तुतिः, वंदना, उपासना च विधातव्या रस्नअयलब्धये प्रयत्नपरेण भवता इति ॥७०॥
एवं व्यवहारनयप्रधानेन अशुभमनोवचनकायव्यापारनिरोधमुख्यत्वेन श्रोणि
इसलिये जैसे मुनियों के सराग चारित्र के आगम में व्यवहार और निश्चय ये दो भेद देखें जाते हैं, वैसे ही श्रावक के विकलचारित्र में व्यवहार निश्चय ये दो भेद कहीं पर भी आगम में नहीं हैं। अतः आपको यह निश्चय करना चाहिये कि अर्हतमुद्रा के बिना निर्विकल्प समाधि, वीतरागचारित्र, निश्चयरत्नत्रय, अभेदसंयम, शुद्धोपयोग, क्लध्यान और स्वरूपाचरण इन नामों से जो कुछ भी चारित्र है, वह सर्वथा अशक्य ही है।
यहां अभिप्राय यह हुआ है कि सहज विमल केवल ज्ञान दर्शन स्वरूप निज परमात्मपद के लिये साक्षात् कारणभूत वीतराग चारित्र उपादेय है और उसकी सिद्धि के लिये सरागचारित्र को परम आदर से ग्रहण करना चाहिये । और जब उसको प्राप्त न कर सके, तब तक उसके अभ्यास के लिये देशचारित्र भी अपनी शक्ति के अनुसार लेना ही चाहिये । इस क्रम से ही आत्मा की सिद्धि होगी, अन्य किसी प्रकार से नहीं । ऐसा निश्चय करके आपको रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये प्रयत्नपूर्वक आजकल के चारित्रवान् मुनियों की भी भक्ति, पूजा, स्तुति, बंदना और उपासना करना चाहिये ।
इस प्रकार व्यवहारनय की प्रधानता से अशुभ मन वचन काय व्यापार के निरोध की मुख्यता से तीन सूत्र हुए हैं, पुन: निश्चयनय की अपेक्षा सर्व शुभ-अशुभ