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नियमसार - प्राभृतम्
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यथा भवद्भिः सर्वसावद्ययोर्गानिवृत्तिरूपमभेद चारित्रं प्राक् मत्या पश्चाद् भेदचारित्रं मन्यते तथैव श्रावकाणामपि निश्चयरत्नत्रयं प्राग्भवेत् तदनु व्यवहाररत्नत्रयम् का हानिर्युष्माकमिति चेत् ? न, असंभवमेतत् यतः सिद्धांतशास्त्रं श्रूयते, यत् सप्तमगुणस्थानादेव षष्ठं जायते न तु प्रथमात् चतुर्थात् पञ्चमाद्वेति । न तथा चतुर्थपञ्चगुणस्थानविषयं दृश्यते प्रत्युत व्यवहारचारिकायैव एक्शन का चारित्रम् । पञ्चास्तिकाये श्रीजयसेनाचार्यस्याभिप्राय व्यवहारमोक्षमार्गप्रकरणे"यत् तपोधनानां प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पंच महाव्रतादिरूपं वारित्रम् गृहस्थानां पुनः उपासका ध्ययनग्रन्थ विहित मार्गेण पंचगुणस्थानयोग्यं दानशालपूजोपवासादिरूपं दार्शनिक प्रतिकायेकादशनिलरूपं वा इति व्यवहारमोक्षमार्गलक्षणम् ""
अन्यत्रापि एवमेव दृश्यते यथा-
"अस्यैव सरागचारित्रस्यैकदेशावयवभूतं देशचारित्रं कथ्यते ।"" इति ।
शंका--जैसे आपने सर्वपापयोग से निवृत्ति रूप अभेद चारित्र को मुनियों में पहले मानकर अनंतर भेदचारित्र माना है, वैसे हो श्रावकों के भी पहले निश्चयरत्नत्रय हो जावे, उसके बाद व्यवहाररत्नत्रय हो जाये, आपको क्या हानि है ? समाधान - ऐसा नहीं कहना, यह असंभव है
।
क्योंकि सिद्धांत शास्त्र में
किंतु प्रथम गुणस्थान से,
सुना जाता है कि सातवें गुणस्थान से हो छठा होता है, चतुर्थ गुणस्थान से या पाँचवें गुणस्थान से नहीं होता है । और वैसा चतुर्थ, पंचम गुणस्थान के विषय में नहीं है, बल्कि व्यवहार चारित्र का ही एकदेशरूप श्रावकों का चारित्र है ।
पंचास्तिकाय में व्यवहार मोक्षमार्ग के प्रकरण ये श्रीजयसेनाचर्य का भी यही अभिप्राय है कि - " तपोधन के प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थान के योग्य पाँच महाव्रत आदि रूप चारित्र होता है और गृहस्थों के उपासकाध्ययन ग्रंथ में कहे मार्ग से पंचम गुणस्थान के योग्य दानशील पूजा उपवासादिरूप, अथवा दर्शनप्रतिमा से लेकर ग्यारह प्रतिमा पर्यंत चारित्र होता है । इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण कहा है। " अन्यत्र बृहद्रव्यसंग्रह की टीका में यही कथन दिखता है । यथा — इसी सराग चारित्र का एकदेश अवयवभूत देशचारित्र कहा जाता है ।
१. पश्चास्तिकायगाथा १६०, टीका तात्पर्यवृत्ति ।
२. बृहवद्रव्यसंग्रह, गाथा ४५, टीका ।