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नियमसार-प्राभृतम्
२०५ जीवस्य पवित्रताकारणत्वात् पवित्रः' ।" इति ।
अत: व्यवहारचारित्रं ताबम्पान्तमपादेयमे व यावत्पर्यंत निश्चयचारित्रं न प्राप्स्यते। किञ्च, वीतरागचारित्रानंतरं निर्विकल्पध्यानावस्थायां तत्तु स्वयमेव नास्त्यतः त्यजनस्य प्रसंग एव नायाति ।
किञ्च, यदि व्यवहारचारित्रं हेयमभविष्यत् तहि तीर्थकरपरमदेवाः कथं न्यरूपयिष्यन, कथं वा ते स्वयमधारयिष्यन् ? अवलोक्यताम्, मुनीनां बृहत्प्रतिक्रमणे श्रीमद्गौतमस्वामिनः कथयन्ति-- ___ "सुदं मे आउस्संतो ! इह खस्लु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाफस्सयेण सव्वण्हणा सबलोगदरिसिणा सदेवासुरमाणुसस्स लोयस्स''सव्वजोवे सब्वभावे सध्वं समं जाणंता पस्संता विहरमाणेण समणाणं पंचमहब्बवाणि राइभोयणवेरमणछट्टाणि समावणणि समाउगपवाणि सउत्तरपदाणि सम्मं धम्म उवदेसिंदाणि ।' अर्थात् कारण होने से उपादेय है, परंपरा से जीव की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है।
इसलिये व्यवहार चारित्र तब तक उपादेय ही है, जब तक कि निश्चयचारित्र प्राप्त न हो जाय । दूसरी बात यह है कि वीतराग चारित्र के अनंतर निर्विकल्प ध्यानावस्था में वह स्वयं ही नहीं है, इसलिये उसके छोड़ने का प्रसंग ही नहीं आता।
और एक बात यह भी है कि यदि व्यवहार चारित्र हेय होता तो तीर्थकर परमदेव उसका प्रतिपादन क्यों करते ? अथवा स्वयं वे उसे धारण क्यों करते ? देखिये, मुनियों के बृहत्प्रतिक्रमण में श्रीमान् गौतम स्वामी कहते हैं--
"हे आयुष्मन्तों ! सुनो, यहाँ पर निश्चय से सर्वज्ञ सर्वलोकदर्शी, महाकाश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महति महावीर ने देव असुर और मनुष्य सहित सभी लोक में......' 'सर्व जीवों को और सर्व भावों को सब कुछ सम्यक प्रकार से ए. साथ जानते-देखते हुए, बिहार करते हुए श्रमणों के पांच महावत, रात्रिभोजन विरत नाम का छट्ठा अणुव्रत, भावनाओं सहित, मातृकापद सहित और उत्तरपदउत्तरगुण सहित सम्यक् यतिधर्म का उपदेश दिया है।' १. समयसारगाथा १२०, टीका तात्पर्यवृत्ति ।