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नियमसार-प्रामृतम्
२०३ निश्चयचारित्रं जायते, पुनः तत्र अधिक कालं स्थातुमशक्नुवतः तस्यैव मुनेस्त्रयोदशविधमष्टाविंशतिभेदं वा चारित्रं छेदोपस्थानाख्यं भवति । अत्र छेदेन व्रतभेदेनोपस्थापनं छेदोपस्थापनमिति लक्षणं गृहीतव्यम् ।
तथैव उक्तं च प्रवचनसारे महाप्राभत ग्रन्थे--
वदसमिविदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च ॥२०॥ एने खल मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता ।
तेसु पमत्तो समणो छेदोवडावगो होदि ॥२०॥ आत्मत्यातिटीकायां
सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानलक्षणैकमहावतव्यक्तिवर्शन हिंसातस्तयाब्रह्मपरिग्रहविरत्यात्मकं पञ्चतयं वतं तत्परिकरश्च पञ्चतयी समितिः पञ्चतय इन्द्रियरोषो लोचः षतयमावश्यकं अचेलक्यमस्नानं क्षितिशयनमवन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तश्चैवं एते निर्विकल्पसामायिकसंयमविकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव । स्थान के योग्य अभेदरूप एक "सामायिक' नाम का निश्चय चारित्र होता है। पुनः उसमें अधिक काल ठहरने में असमर्थ होते हुए उन्हीं मुनि के तेरह प्रकार का अथवा अट्टाईस भेदरूप चारित्र होता है, उसे छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं । यहाँ पर छेद से अर्थात् बतभेद से उपस्थापना, छेदोपस्थापना ऐसा लक्षण ग्रहण करना चाहिए।
प्रवचनसार नामक महाप्राभृत ग्रन्थ में इसी को कहा है--
"पाँच व्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, केशलोच, छह आवश्यक क्रिया, अत्रेल, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण श्रमणों के लिए जिनेंद्रदेव ने कहे हैं। इनमें प्रमत्त हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।"
इसको आत्मख्याति टीका में श्रीअमृतचंद्रसूरि ने कहा है-सर्वसावध योग का त्याग लक्षण एक महावत भी भेद के वश से हिसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह इन पाँच पापों से विरतिरूप पाँच महानतरूप हो जाता है । उसके परिकर में पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, लोच, छह आवश्यक, अचेलक्य, स्नानत्याग, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त, ये सब निर्विकल्प सामायिक संयम के ही भेद होने से धमणों के मूलगुण ही हैं । जब निर्विकल्प सामायिक संयम