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नियमसार-प्राभृतम्
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शानदर्शनमात्मनि शुद्धोपयोगे अवस्थितिः सैव मनोगुप्तिः निश्चयनयेन जायते । तथैव अनृतपरप्रतारणादिवचनानां निरासः, अंतर्बाह्यजत्थं वा निरुध्य तूष्णींभावेन अवस्थानं वाग्गुप्तिनिश्चयनयेन भवति । इमे गुप्ती अप्रमत्तमुनीनां विषयकषायजनितसकल संकल्पविकल्पशून्ये परमनिर्विकल्पसमाधौ एव सिद्धयतः इति ज्ञात्वा प्राग्व्यव हारगुप्तीरवलम्ब्य निश्चयगुप्तिप्राप्त्यर्थं प्रयत्नो विधेयः ।। ६९ ।।
अधुना काय गुप्तिस्वरूपं निश्वयनमेन प्रतिपादयत्याचार्यदेवाः— काय करियाणियत्ती काउसग्गो सरीरंगे गुत्तो । हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुतित्तिणिहिट्टा ॥७०॥
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अभाव होना, सकल विमल ज्ञान दर्शनमय आत्मस्वरूप शुद्धोपयोग में स्थिति होना, निश्चयनय से वही मनोगुप्ति होती है । उसी प्रकार असत्य, दूसरों को ठगने आदि वचनों को छोड़ देना अथवा अंतरंग-बहिरंग जल्प को भी रोककर मौनपूर्वक स्थित होना निश्चयनय से वही वचनगुप्ति होती है ।
ये दोनों गुप्तियाँ अप्रमत्त मुनियों के विषय कषाय से उत्पन्न सकल- संकल्प विकल्पों से रहित परम निर्विकल्प समाधि में हो सिद्ध होती हैं । ऐसा जानकर पहले व्यवहार गुप्तियों का अवलम्बन लेकर निश्चयगुप्ति की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए ।
भावार्थ - - व्यवहार गुतियाँ तो छठे गुणस्थान में शुभ मन वचन काय की प्रवृत्ति करते हुऐ मुनियों के हो सकती हैं किंतु ये निश्चय गुप्तियाँ प्रायः ध्यान में ही घटित होती हैं । अतः जो आचार्यों के छत्तीस मूलगुणों में गुप्तियों का वर्णन है या साधुओं के तेरह प्रकार के चारित्र में जो गुप्तियाँ विवक्षित हैं वे व्यवहार गुप्तियाँ ही समझनी चाहिए। क्योंकि निश्चयगुप्तियाँ प्रायः जिनकल्पी मुनियों में ही संभव हैं ||७० ||
अब आचार्यदेव काय गुप्ति का स्वरूप निश्चयनय से कहते हैं-
अन्यवार्थ – (कायकिरियाणियत्ती काउसग्गो सरांरंगे गुत्ती ) काय की क्रिया को रोकना और कायोत्सर्ग करना यह काय गुप्ति है । ( वा हिंसा इणियत्तीसरीरगुत्ति तिमिद्दिट्ठा) अथवा हिंसादि पापों से छूटना कायगुप्ति कही गई है ॥ ७० ॥