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नियमसार-प्रामृतम् कायगुप्तिस्वरूपं निरूपयन्त आहुःहै बंधणछेदणमारण आकुञ्चण तह पसारणादीया।
कायकिरियाणियत्ती णिहिट्ठा कायगुत्ति ति ॥६८॥
बंधणछेदणमारणआकुरुचण तह पसारणादीया-बंधनछेवनमारणाकुन्चनानि तथा प्रसारणादीनि कायकिरियाणियती-कायक्रियानिवृत्तिः कायगुत्ति ति णिट्ठिाकापगुप्तिः इति निर्दिष्टा भवति ।
___ तद्यथा---केषाञ्चित् अपि प्राणिनां बंधनम् इष्टस्थानगमने निरोधनम्, छैननं नासिकाद्यवयवानां छेदन विदारणम्, मारणं बाधाकरण पोडनं वा नतु प्राणेवियोजनम्, आकुच्चनं हस्तपादादिसंकोचनम्, प्रसारण हस्तपादादीनामेव प्रसारणम् आदिशब्देनासावधानतया यत्किपि स्वकायस्याशुभचेष्टा करणं तत्सर्वं गृह्यते । - भावार्थ-चार प्रकार की विकथायें छठे गुणस्थान तक प्रमत्त संयत मुनि के पंद्रह प्रमादों में ली गई हैं। इनको छोड़ना वचनगुप्ति है । अथवा असत्य वचन आदि न बोलना भी बचनगप्ति है । इसका तात्पर्य यही हो जाता है कि सत्य वचन बोलने वाले मुनि भी व्यवहारगुप्ति धारक हैं। अथवा विकथाओं के त्यागी मुनि भी व्यवहारगुप्ति के धारक ही हैं।
अब कायगुप्ति का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं
अन्वयार्थ-(बंधणछेदण मारण आकुंचण तह पसारणादीया) बंधन, छेदन, मारण, संकोचना तथा फैलाना आदि (कायकिरियाणियत्ती कायगुत्ति ति णिहिता) काय क्रियाओं का छोड़ना ही कायगुप्ति इस नाम से कही गई है ।।६८।।
टोका–बाँधना, छेदना, मारना, संकोचना, फैलाना आदि काय की क्रियाओं का त्याग करना कायगप्ति कही गई है। उसी को कहते हैं--बंधनकिन्हीं भी प्राणियों को इष्टस्थान में जाने से रोकना । छेदन-नाक आदि अवयवों को छेद देना, मारण--प्राणियों को बाधा देना अथवा पोडित करना न कि प्राणों से अलग करना । आकुञ्चन-हाथ पैर आदि का सिकोड़ना । प्रसारण-हाथ पैर आदि का फैलाना । आदि शब्द से असावधानी में जो कुछ भी अपने शरीर की क्रियाओं का करना है वह सभी यहाँ ग्रह्ण करना चाहिये ।