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नियमसार-प्राभृतम् स्त्रीणां कथा सैव विकथा इति । राज्ञां कथा राजकथा, भूपतीनां संधिविग्रहादिराजनीतिसंबंधिनी या कथा सैव राजकथा । अत्रापि रागद्वेषादिभावेन यत्किमपि जल्पनं राजसंबंधि तदेव गृह्यते, न च पुराणादिषु राज्ञां वर्णने कृते सति । चौराणां कथा चौरकथा, अत्रापि परिहारः पूर्वोक्तविधिनैव । भक्तानां भोज्यवस्तूनां कथा भक्तकथा, आहारविषये लंपटत्वेन या काचित् भोजनकथा तस्या एव ग्रहणमत्र । आविशब्देन वैरकलिवितण्डादिकथाः याः काश्चिद् अशुभास्ताः सर्वा गृहीतव्याः । एतादक्कथासंबंधिवचनानि तत्सर्वाण्यपि पापात्रबहेतनि, यो मनिस्तानि परिहरति, स एव वचोगुप्तिधारको भवति ।।
अथवा अलोकम् असत्यम्, आविशब्देन अप्रशस्तं यद्वचनं तत्सर्वमपि वळमेव । एतत्सत्यादिरहितेन यद्वचन भाषणं सापि बचोगुप्तिः गीयते वचनगुप्तिधारकगणधरादिमहापुरुषैः, इयमपि गुप्तिर्व्यवहारनयेनैव इति ज्ञात्वा वाग्गुप्तिः सततं भावयितव्या भवद्भिः ॥६७॥
राजाओं की कथा राजकथा है, राजाओं की संधि, विग्रह आदि राजनीति संबंधी जो कथा है, वही राजकथा है। यहाँ पर भी रागद्वेषादि भाव से जो कुछ भी राजा संबंधी कथन है, वही ग्रहण करना चाहिए, न कि पुराण आदि में राजाओं का वर्णन करने पर वह राजकथा है ।
चोरों की कथा चोरकथा है । यहाँ पर भी पुराणों में जो चोर आदि का वर्णन है, उससे अतिरिक्त जो चोरों की चर्चायें हैं वे ही चोरकथा हैं । भक्त-खाने योग्य वस्तुओं की चर्चा भोजनकथा है। यहां पर भी आहार के विषय में लंपटतापूर्वक जो कोई भोजन की चर्चाये हैं, उनका ही लेना उचित है। आदि शब्द से वैर, कलह, वितण्डावाद आदि की चर्चायें भी जो कुछ अशुभ हैं, वे सभी यहाँ ग्रहण कर लेनी चाहिए। इनके सदृश कथा संबंधी जो कोई भी वचन हैं वे सभी पापास्रव के कारण हैं। जो मुनि इनका परिहार कर देते हैं, वे ही वचनप्ति के धारक होते हैं।
अथवा असत्य वचन और आदि शब्द से जो अप्रशस्त बचन हैं, वे सभी वयं ही हैं । इन सभी असत्य आदि से रहित जो भी बोलना है, वह भी वचनगुप्ति कहलाती है। वचनगप्ति के धारक गणधर आदि महापुरुषों ने इस गुप्ति को भी व्यवहारनय से ही कहा है । ऐसा जानकर आपको सतत ही वचनगुप्ति की भावना करनी चाहिए ॥६७॥