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नियमसार-प्राभृतम् बहतस्स-चारित्रभारं वहतः, निश्चयव्यवहारचारित्रं दधतो मुनेः ।
___ बाह्याभ्यंतरभेदानां सर्वपरिग्रहाणां त्यागोऽपरिग्रहाख्यं महाव्रतं भवति । इतरेषु संयमज्ञानशौचोपकरणेषु श्रामण्ययोग्यसंस्तरादिषु च ममत्वरहितपरिणामश्च ।
ननु बाह्यवस्तुषु मूर्छापरिणाम एव परिग्रहः, न च वस्तुग्रहणम् ? नेतघुक्तम्; बाह्यवस्तुपरित्यागे सति मूळभावाभावो भदेत् न वा भवेत्, किंतु बाह्यवस्तुसद्भावे मुर्छाभावो भवेदेव । यथा तंबुलस्य तुषसाचे अभ्यंतररक्तिमा न नश्यति, किन्तु तुषापसारणे नश्यति न वापि च । अतः बाह्यं सर्वपरिग्रहं त्यक्त्वा स्वस्वयोग्यगुणस्थानानुसारेण अन्तरंगपरिग्रहोऽपि त्यक्तथ्यः । क्रिश्च, सर्वसंगाभावें अपरिग्रह नाम का महावत होता है। इतर जो संयम, ज्ञान और शौच के उपकरण हैं तथा और जो भी मुनिपद के योग्य संस्तर आदि है, उनमें ममत्व रहित परिणाम होना चाहिए।
__ शंका--बाह्य वस्तुओं में मुर्छा-ममत्व परिणाम का होना ही परिग्रह है, न कि उनको ग्रहण करना ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य वस्तुओं का परित्याग कर देने पर ममत्व भाव रह सकता है अथवा नहीं भी रह सकता है, किंतु बाह्य परिग्रह के सद्भाव में ममत्व भाव होता ही है। जैसे कि धान्य के ऊपर तुष के रहते हुए अन्दर की ललाई (चावल के ऊपर की ललाई) नहीं दूर हो सकती है, किंतु यदि धान्य के ऊपर का छिलका दूर कर दिया जाय तो वह चावल के ऊपर की ललाई दूर भी हो सकती है और रह भी सकती है। अत: बाह्य सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर अपने-अपने योग्य गुणस्थान के अनुसार अन्तरंग परिग्रह भी छोड़ना चाहिए। - दूसरी बात यह है कि सर्व परिग्रह का अभाव हो जाने पर निःसंग और निमम होकर परमसाधु नीचे-नीचे नहीं गिरने से ऊपर-ऊपर गमन करते हुए लोक के अग्रभाग पर भी पहुंचने में समर्थ हो जाते हैं। ऐसा जानकर धीरे-धीरे परिग्रहरूपी ग्रह-पिशाच से छुटकारा प्राप्त करना चाहिए।
भावार्थ-बाह्य परिग्रह के रहने पर उससे सर्वथा ममत्व नहीं छूट सकता है, अत: बाह्य परिग्रह का त्याग करके ही तत्संबंधी ममत्व को छोड़ा जा सकता है। दूसरी बात यह है कि जिसके पास जितना-जितना भार होता है, वह उतना-उतना