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नियमसार-प्राभृतम्
१८६ णामो-अथवा मैथुनसंशाधिवजितपरिणामः मैथुनसंशया रहितः परिणामोऽपि तस्य मुनेः, तुरीयवद-तुरीयत्वतं चतुर्थ महाव्रतं भवति इति ।
तथाहि---कमनीयकामिनीनां रागभावनितावलोकनसंलापादिरूपभावनापरित्यागेन पुंवेदोदयजनितमैथुनसंज्ञापरिणामत्यागेन च चतुर्थ ब्रह्मचर्यमहावतं भवति । वृद्धवालयौवनभेवात् त्रिभेदं स्त्रीरूपं देवमनुष्यतिरश्चीनां वा स्त्रीरूपं विलोक्य ताभ्यो निवर्तन चित्रलेपभेदादिषु तत्प्रतिबिंब वा दृष्ट्वा तत्र रागाधभावो भावो ब्रह्मचर्यवतं गीयते । इदं व्रतं त्रैलोक्य पूज्यं भवति । यथा एकद्वियादिसंख्यानामभावे शून्यानां न काचिद् गणना शून्यमेव, तथैव एतद्ब्रह्मवताभावे अन्यत्रतानां न किंचिमाहात्म्यम् ।
ननु मिथुनस्य भावः कर्म था मेथुनमिति व्युत्पत्या स्त्रीपुरुषयोः यत्किश्चिबपि फर्म तत्सर्वमपि मैथुनं प्रसज्यते । तन्न; चारित्रमोहोदयात् । रागाविष्टस्त्रीपुंसोः परस्परस्पर्शादिकृतरतिचेष्टा मैथुनम् । किंच, अयं मैथुनशब्दः लोके शास्त्रे च स्त्री
सुन्दर स्त्रियों को रागभाव से देखना, रागभाव से उनके साथ वार्तालाप आदि करना, इन सब रागभावों का त्याग करने से और पुरुषवेद के उदय से होने वाले मेथुन संज्ञा के भावों का त्याग करने से चौथा ब्रह्मचर्य महावत होता है। बृद्धा, बाला और युवती के भेद से स्त्री के तीन भेद है अथवा देवी, मनुष्य स्त्री और तिर्यंचनी की अपेक्षा भी स्त्रियों के तीन भेद हैं। इन तीनों प्रकार की स्त्रियों से विरक्त होना, अथवा चित्र, लेप आदि भेदवाली, अचेतन स्त्रियों के प्रतिबिंब को देखकर उनमें रागादि भाव नहीं करना ब्रह्मचर्य व्रत है। यह व्रत तीनों लोकों में पूज्य है। जैसे एक दो तीन आदि संख्याओं को इकाई में न रखने से अनेक शून्यों की कोई गणना नहीं होती है, वे शून्य ही रहते हैं, वैसे ही इस ब्रह्मचर्यव्रत के अभाव में अन्य व्रतों का कुछ भी महत्त्व नहीं है ।
शंका----मिथुन अर्थात् युगल का भाव अथवा कम मैथुन हैं । इस व्युत्पत्ति से स्त्री और पुरुष की जो कोई भी किया है, वह सभी मैथुन कहलायेगी ?
समाधान--ऐसी बात नहीं है, क्योंकि चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने पर रागपूर्वक स्त्री और पुरुष की परस्पर में स्पर्श आदि से की गई जो रति चेष्टा है उसे ही मैथुन कहते हैं। दूसरी बात यह है, कि यह मैथुन शब्द लोक