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नियमसार - प्राभूतम्
निःसंगो निर्ममो भूत्वा परमश्रमण : अबोध: पतनाभावात् उपरि गच्छन् सन् परंपरा लोकान्तमपि गन्तुं क्षते । इति शः शनैः परिग्रहग्रहात् निवृत्तिः कर्तव्या । एवं प्रथममहिाव्रतलक्षणसूचकत्वेन एक सूत्रम्, तस्यैव परिकरस्वरूपसत्या चौर्य ब्रह्मचर्यापरिग्रह महाव्रतलक्षणकथनप्रधानत्येन चतुःसूत्राणि, इति पञ्चभिः सूत्रैः मुनीनां मूलप्रतिपादकोऽयं प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः । इत ऊर्ध्वं व्रतस्य वृतिसदृशानां समितीनां स्वरूपं निगद्यते पञ्चभिः सूत्रैः ||६०||
पञ्चमहाव्रतलक्षणमाख्याय पञ्चसमिति व्याख्यातुकामस्तावदीर्यासमितैः स्वरूपमाचक्षते सूरयः -
पासुगमम्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्यमाणं हि । गच्छ पुरो समो इरियासमिदी हवे तस्स || ६१ ।।
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समणो पासुगमम्गेण दिवा जुगष्यमाणं हि पुरदो अवलोगंतो गच्छइ - यः श्रमणः प्राकमार्गेण दिवा युगप्रमाणं खलु पुरतः अवलोकयन् गच्छति, तस्स इरियासमिदी हवे - तस्य श्रमणस्य ईर्यासमितिः भवेत् ।
ही नीचे गिरता है, तराजू के पलड़े के समान, और जो हल्का होता है वह ऊपरऊपर उठता चला जाता है, जैसे कि तराजू का खाली पलड़ा । वैसे ही निष्परिग्रही मुनि ही एक न एक दिन लोकाग्रभाग पर पहुंच सकते हैं, न कि परिग्रही साधु ।
इस प्रकार प्रथम अहिंसाव्रत के लक्षण को सूचित करते हुए एक सूत्र हुआ, उसी के परिकर स्वरूप सत्य अचीर्य ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों के लक्षण के कथन की प्रधानता से चार सूत्र हुए, इस तरह पाँच सूत्रों द्वारा मुनियों मूल व्रतों का प्रतिपादक यह प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ । इसके आगे व्रतों की वृत्ति के सदृश जो समितियाँ हैं, उनका स्वरूप पांच सूत्रों द्वारा कहेंगे ॥ ६० ॥
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आचार्यदेव पाँच महाव्रतों का लक्षण कहकर अब पाँच समितियों को कहने की इच्छा रखते हुए पहले ईर्यासमिति का स्वरूप कहते हैं
अन्वयार्थ --- ( पासुगमग्गेण दिवा जुगप्पमाणं हि पुरदो अवलोगंतो समणो गच्छ इ) प्रामुक मार्ग से दिन में चार हाथ प्रमाण आगे देखते हुए जो श्रमण चलते हैं ( तस्स इरियासमिदो हवे ) उनके ईर्यासमिति होती है ।। ६१ ।।