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नियमसार-प्रीभृतम् श्रीगौतमस्वामिभिरपि भाषासमितेः प्रतिक्रमणे प्रोक्तं तद्यथा--
"तत्र भाषासमिदो कक्कसा कडुआ णिछरा परकोहिणी मनं किसा अइमाणिणो अणयंकरा छेयंकरा भूयाणं वहंकरां चेदि वसविहा भासा भासिया भासिज्जतो वि समणमणिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं।"
अर्थात् "कर्कशा, कटुका, निष्ठरा, परक्रोधिनी, मध्यंकशा, अतिमानिनी, अनयंकरा, सोइंका, भूतानां वातास खेशि शकिया बाया. अप्रशस्ताः न वक्तव्याः भवति, कदाचित् एतासां भाषाणां प्रयोगे कृते कारिते अनुमतिदाने वा मम दोषो मिथ्या भवतु' इति भाषासमितेर्दोषनिराकरण प्रतिक्रमणमिदम् । एतेन ज्ञायते भाषासमितिधारकेन मुनिना एतादृशीः भाषास्त्यक्त्वा आगमानुकूलं वचनं वक्तव्यम् । यद्यपि साधूनामियं समितिस्तथापि श्रावकेणापि अभ्यसनीया भवति ॥२॥
एपणासमित. स्वझपं प्रतिपादयन्त मूरयः आहु-- .. कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुर्ग पसत्थं च ।
दिपणं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी॥६३।।
श्री गौतमस्वामी ने प्रतिक्रमण में भाषासमिति के बारे में कहा है-'उसमें भाषासमिति में कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परकोपिनी, मध्यंकशा, अतिमानिनी, अनयंकरा, प्राणियों की वधकरी ऐसी दस प्रकार की भाषा बोली हो, बुलवाई हो और बोलते हुए को अनुमोदना दी हो, वह सब मेरा दोष मिथ्या होवे ।"
अभिप्राय यह है कि कर्कशभाषा, कठोरभाषा, निष्ठरभाषा, पर को क्रोध कराने बाली भाषा, हड्डियों में भी प्रवेश कर जाये ऐसे कठोर शब्द मध्यंकशा कहलाते हैं, अतिमानकारी वचन, नयों से विरुद्ध वचन, हृदय में छेद हो जायें ऐसे वचन और जीवों का वध करने वाले बचन ये दस प्रकार के वचन अप्रशस्त हैं, इन्हें नहीं बोलना चाहिए।
यदि कदाचित् ऐसी भाषा बोलो हो, दूसरों से बुलवाई हो या बोलते हए को अनुमति दी हो, वह मेरा दोष मिथ्या होवे । इस प्रकार भाषा समिति के दोषों को दूर करने वाला यह प्रतिक्रमण है।
इससे जाना जाता है कि भाषासमिति के धारक मुनि को ऐसी भाषा छोड़कर आगम के अनुकूल वचन बोलना चाहिए । यद्यपि साधुओं के लिए यह समिति है, फिर भी श्रावकों को भी इसका अभ्यास करना चाहिए ।।६२॥
आचार्यदेव एषणा समिति का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैंअन्वयार्थ—(कदकारिदाणुमोदणरहिंद) कृत कारित अनुमोदना से रहित