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नियमसार - प्राभृतम्
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विनिमित्तं च गृद्धि नियाविरहितेन हतः
सालको भवति । प्राणयात्रा चिकीर्षवानया समित्या स्वशरीरं रक्षयतो मुनेः रत्नत्रय सिद्धिर्जायते । तदासौ पौद्गलिककलाहारमन्तरेणापि किश्चिन्यून पूर्वकोटिवर्षपर्यन्तं परमोदारिकदिव्यशरीरेण तिष्ठन् सन् विव्यवचनामृतेरसंख्यभव्यान् संतर्प्य स्वयं परमानंदामृतेन तृप्तोऽशरीरी भविष्यति । इति ज्ञात्वा श्रावण स्वस्यापि भोजनशुद्धिः प्रयत्नेन कर्तव्या भवति ॥६३॥
आदाननिःश्लेषणसमितेः स्वरूपं निरूपयाचार्याः ---
पोथाइकमंडलाई गहण विसग्गेसु पयतपरिणामो । आदावणणिवखेवणसमिदी होदित्ति णिद्दिट्ठा ॥ ६४ ॥
जो मुनि असाता के उदय से उत्पन्न हुई भूख को शान्त करने के लिए और वैयावृत्ति आदि करने के निमित्त गृद्धता निंदा आदि भावों से रहित होकर ग्रहण करते हैं, वे ही एषणासमिति के पालन करने वाले होते हैं ।
प्राणयात्रा की इच्छा रखते हुए इस समिति से अपने शरीर की रक्षा करते हुए मुनि के रत्नत्रय की सिद्धि होती है । तभी यह पौद्गलिक कवलाहार के बिना भी किंचित् न्यून पूर्व कोटिवर्ष पर्यंत परमोदारिक दिव्य शरीर में रहते हुए अपने दिव्यध्वनि रूप वचनामृत से असंख्य भव्यों को संतर्पित करके स्वयं परमानंदामृत से तृप्त होते हुए अशरीरी हो जायेंगे । ऐसा जानकर श्रावकों को भी अपनी भोजन शुद्धि प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए ।
भावार्थ - साधुओं के संपूर्ण व्रतों में एषणासमिति में हो सबसे अधिक दोष बतलाए गये हैं । आज जो भक्ष्याभक्ष्य, उचित-अनुचित का विचार न कर जैसा चाहे वैसा भोजन करते हैं वे भी साधुओं की चर्या के प्रति चर्चा किया करते हैं। फिर भी आचार्य शांतिसागर जी और आचार्य वीरसागर जी महाराज कहा करते थे कि इस युग में भी मुनियों को निर्दोष आहार मिलता है और आगे भी उनकी निर्दोष चर्या चलती रहेगी। तभी तो पंचम काल के अन्त तक निर्दोष मुनि आर्थि काओं का अस्तित्व माना गया है ।
दूसरी बात यह है कि भोजन शुद्धि में श्रावकों को स्वयं भी शुद्धता रखनी चाहिए, जिससे श्रावक व्रतों का पालन हो सके ॥ ६३ ॥
आचार्यदेव आदान निक्षेपण समिति का स्वरूप कहते हैं
अन्वयार्थ - ( पोधइक मंडलाई गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो ) शास्त्र कमंडलु