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नियमसार-प्राभृतम् तथाहि-सम्यकप्रकारेण श्रुतनिरूपितक्रमेण सावधानधित्तेन गमनादिषु प्रवृत्तिः समितिः । ताः पञ्च ईय भाषणादाननिक्षेपणप्रतिष्ठासमितिभेदेन । ईरणं गमन ईर्या, तस्याः समितिः ईर्यासमितिः। यः श्रमणो हस्तियोमहिषोखरोष्ट्रजनसभुवायोपदितेन प्रासुकमार्गेण प्रवृत्तनेत्रसंचारे सूर्योद्गमे युगप्रमाणं चतुर्हस्तप्रमाणं पादनिक्षेपणभूमि पश्यन् सन् गच्छति चलति प्रयोजनवशेन शास्त्रश्रयणतीर्थयात्रादेवगुरुदर्शनादिहेतोः, तस्य मुनेः ईर्यासमितिर्भवति । एतत्समितिपूर्वकं गमनेन त्रसस्थावरजीवानां रक्षा जायते। यद्यपि मुनीनामेव समितेरूपदेशः, तथापि श्रावकेणापि भूमिमवलोक्यता गमनेन गुण एव, इति ज्ञात्वा जीवरक्षाभिप्रायेण तेनापि शक्त्यनुसारेण ईर्यासमितिः पालनीया ॥६१।।
टीका-जो साधु प्रासक मार्ग से दिन में चार हाथ प्रमाण आगे देखते हुँ चलते हैं, उा सानु मह यसमिति होती है । उसी को कहते हैं—सम्यक् प्रकार से शास्त्र के कहे क्रम से सावधान चित्त होकर गमन, बोलना, भोजन आदि में प्रवत्ति करने का नाम "समिति' है। वे पाँच हैं-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापना समिति । ईरण अर्थात् गमन करना ईर्या है, उसकी समिति ईर्या समिति है। जो साधु सूर्य का उदय हो जाने पर दिन में हाथी, गाय, भैंस, गधा, ऊँट और मनुष्य आदि समुदाय के चलने से मार्ग के प्रासुक हो जाने पर अच्छी तरह से नेत्र से मार्ग के दिखने पर चार हाथ आगे की जमीन को देखकर चलते हैं, उसमें भी प्रयोजन से ही चलते हैं--शास्त्र सुनने के लिए, तीर्थ यात्रा के लिए देवदर्शन अथवा गुरुदर्शन के लिए ही वे गमन करते हैं, उन मुनि के ईर्यासमिति होती है।
इस समिति पूर्वक गमन करने से अस-स्थावर जीवों की रक्षा होती है। यद्यपि मुनियों के लिए ही समिति का उपदेश है, फिर भो श्रावकों को भी भूमि को देखते हुए चलने से गुण ही है, ऐसा जानकर जीवरक्षा के अभिप्राय से श्रावकों को भी अपनी शक्ति के अनुसार ईर्यासमिति का पालन करना चाहिए।
भावार्थ-मनि बिना प्रयोजन के कभी नहीं चलते हैं । प्रयोजन में देवदर्शन, गुरुदर्शन, तीर्थ यात्रा या शास्त्र श्रवण ये ही प्रमुख प्रयोजन हैं । श्रावकों के लिए भी भूमि देखकर ही चलने का आदेश है, अत: एक देश समिति उनके भी होती है ॥६१॥