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नियमसार-प्राभृतं
पुरुषसंयोगज रतिविशेषे प्रसिद्धः । एतत्कथनेन स्त्रीपुरुषाणां वंदनादिक्रियायां प्रसक्तौ सत्यों न च कश्चिद् दोषः । अस्य व्रतस्यानुष्ठानेन मुक्तिलक्ष्मीरपि वरीतुमीहते । इति ज्ञात्वा स्वात्मजन्यपरमानंदसुखमभिलषता त्वया निजशुद्धबुद्धक स्वभावपरमब्रह्मणि स्थित्वा पूर्णब्रह्मचर्यव्रतं आचरणीयम् ॥५९॥
अपरिग्रह महाव्रतक्षणं प्रपयन्याचार्याः-
सव्वेसिं गंथाणं लागो णिवेक्खभावणापुर्व । पंचमबदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहतस्स ॥ ६० ॥
सम्बेसि गंथाणं णिरत्रेक्खभावणावं तागी पंत्रमवदमिदि भणिदं सर्वेषां प्रभ्थानां निरपेक्षभावनापूर्वं त्यागः पंचमव्रतम् इति भणितम् । कस्य ? चारितभर
में अथवा शास्त्र में स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुए रतिसुख विशेष में ही प्रसिद्ध है । इस कथन से स्त्री-पुरुष मिलकर यदि देववंदना, गुरुवंदना आदि क्रियायें कर रहे हैं, तो उसमें कोई दोष नहीं है ।
इस व्रत के अनुष्ठान से मुक्तिलक्ष्मी भी वरण करना चाहती है। ऐसा जानकर अपनी आत्मा से उत्पन्न परमानंद सुख की अभिलाषा रखते हुए तुम्हें निज शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव वाले परमब्रह्म स्थित होकर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का आचरण करना चाहिए ।
भावार्थ --चेतन या अचेतन किसी भी स्त्री को रागभाव से देखना ही ब्रह्मचर्य को नष्ट करने में कारण है । अतः मैथुन संज्ञा से होनेवाले रागभाव का त्याग कर अपने ब्रह्मचर्य व्रत को पूर्ण निर्दोष रखना चाहिए ।। ५९ ।।
अब आचार्य अपरिग्रह महाव्रत का लक्षण कहते हैं
अन्वयार्थ - - (रिवेक्खभावणापुच्वं सव्वैसि गंथाणं तागो) निरपेक्ष भावना पूर्वक संपूर्ण परिग्रह का त्याग करना (चारितभर बहंतस्स पंचमवदं इदि भणिदं ) यह चारित्र के भार को धारण करने वाले मुनि का पाँचवाँ महाव्रत कहा गया है ।। ६० ।।
टीका -- सम्पूर्ण परिग्रह का निरपेक्ष भावना पूर्वक त्याग कर देना यह पाँचवाँ महाव्रत है । यह निश्चय और व्यवहार चारित्र के भार को वहन करने वाले मुनि के ही होता है । बाह्य और आभ्यंतर ऐसे सर्व परिग्रह का त्याग करना यह