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व्यवहार चारित्रोऽधिकारः
अथाह जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे इह खलु दुष्धमकालेऽपि त्रयोदशविधचारित्रधारिणो ये केचिन्निर्प्रस्थदिगंबरा मुनयो विहरन्ति कृतिकर्मविधिपूर्वकं तान् सर्वान् प्रणमाम्यहम् ।
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अथ तावत् निश्चयचारित्रस्य साधनभूतो व्यवहारचारित्रास्यः चतुर्थोऽधिकार आरभ्यते । तत्रैकविंशतिसूत्रेषु 'कुलजोणिजीवमग्गण'-- इत्यादिगाथासूत्रमावि कृत्वा पंचसूत्राणि पञ्च महाव्रतलक्षणप्रतिपादनमुख्यत्वेन तदन 'पासुगम गेण' इत्यादिसूत्रमावि कृत्वा पञ्चसूत्राणि पञ्चसमितिस्वरूपकथनप्रधानत्वेन तदनन्तरं 'कालुस्समोह' - इत्यादिसूत्रमादिं कृत्वा पञ्चसूत्राणि व्यवहारनिश्चयात्मकत्रय गुप्ति स्वरूपकथनमुख्यत्वेन तत्पश्चात् 'घणघाइकम्म' इत्यादिगाथासूत्रमादि कृत्वा पञ्चसूत्राणि पञ्च गुरुलक्षणकथनप्रधानत्वेन ततः 'एरिसयभावनाएं' - इत्यादिरूपमेकं सूत्रं व्यवहारचारित्रोपसंहारनिश्चयचारित्र प्रतिपादनप्रतिज्ञासूचनपरत्वेन सूरयः प्रतिपादयन्तीति चतुभिरन्तराधिकारे समुदायपात निका ।
अब निश्चय चारित्र का साधन ऐसा व्यवहार चारित्र नाम का चौथा अधिकार प्रारंभ किया जा रहा है । उसमें इक्कीस सूत्रों में से "कुलजोणिजीवमग्गण" इत्यादि गाथा सूत्र को आदि करके पाँच महाव्रत के लक्षणों के प्रतिपादन की मुख्यता से पाँच सूत्र हैं । पुनः 'पासुगमगेण' इत्यादि सूत्र से लेकर पाँच समिति के स्वरूप को कहने की प्रधानता से पाँच सूत्र हैं । अनंतर "कालुस्समोह" इत्यादि सूत्र को लेकर व्यवहार निश्चयरूप तीन गुप्ति के कथन की मुख्यता से पाँच सूत्र हैं । इसके बाद “ घणघाइकम्म" इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके पंच परम गुरु के लक्षण की प्रधानता से पांच सूत्र हैं। इसके बाद "एरिसयभावणाए" इत्यादि रूप एक सूत्र में व्यवहारचारित्र का उपसंहार और निश्चयचारित्र को कहने की प्रतिज्ञा की सूचना है । इन इक्कीस सूत्रों में यह व्यवहार चारित्र का प्रतिपादन है । इस तरह चार अन्तराधिकारों से यह समुदाय पातनिका हुई ।