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नियमसार-प्राभूत तात्पर्यमेतत्-असंयतसम्यवृष्टिद्यवहारनिश्चयमोक्षमार्ग श्रद्धत्ते। देशसंयत एकदेशचारित्रमवलंब्य सकलचारित्रमोहते, पुनः पुरुषार्थबलेन सकलसंयममादाय सरागसंयतो मुनिर्भवति तवासी व्यवहारतपश्चरणावश्यकक्रियाद्यनुष्ठानं करोति । एतब्ब्यवहारचारित्र बलेन यवा निश्चयचारित्रमाश्रयति तदा निश्चयतपश्चरणावश्यकादिमयं परमसमाधौ स्थित्वा अन्तर्मुहूर्तमात्रे काले मोहनीयं निपात्य परमवीतरागो भूत्या सर्वज्ञो भवति इति ज्ञात्वा निश्चयचारित्रं ध्येयं कृत्वा व्यवहारचारित्रमवलम्बनीयमिति ॥५५।।
सहजविमलज्ञानदर्शनसुखवीर्यस्वरूपनिजपरमानंदसूखामृतपानचिकीर्षवश्चारविसमन्वितमहासाधवो यावत्पर्यंत विहरन्तो जिनजिनगृहाणि वंदन्ते नमस्तेभ्यो वयूनचतुःशतजिनगृहेभ्यो नित्यमस्तु ।
एवं सम्यग्दर्शनशामलक्षणमुख्यत्वेन द्वे सूत्र, सम्यक्त्वस्योत्पत्तिप्रतिपादनपरत्वेन एक सूत्रम्, चारित्रमपि मोक्षस्य कारणमिति सूचनपरत्वेन एक सूत्रम्, व्यवहारनिश्चयचारित्रान्तर्गतव्यवहारनिश्चमतपश्चरणकथनपरेण एक सूत्रम् इति पंचभिः सूत्रः सम्यग्दर्शनज्ञानविशेषप्रतिपादको तृतीयोऽन्तराधिकार समाप्तः ।
तात्पर्य यह हुआ कि असंयत सम्यग्दृष्टि व्यवहार और निश्चय दोनों मोक्षमार्ग का श्रद्धान करते हैं। देशसंयत श्रावक एकदेश चारित्र का अवलंबन लेकर सकलचारित्र की इच्छा करते हैं, पुनः पुरुषार्थ के बल से सकल संयम को ग्रहण करके सरागसंयमी मुनि हो जाते हैं, तब यह व्यवहार तपश्चरण, आवश्यक क्रिया आदि का अनुष्ठान करते रहते हैं। इस व्यवहार चारित्र के बल से जब निश्चयचारित्र आवश्यकादि क्रियामय परमसमाधि में स्थित होकर अंतर्मुहर्त काल में मोहनोय को नष्ट करके परम-वीतराग होकर सर्वज्ञ हो जाते हैं ।
ऐसा जानकर निश्चयचारित्र को ध्येय करके व्यवहार चारित्र का अबलम्बन लेना चाहिये ॥५५॥
इस प्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान के लक्षण की मुख्यता से दो सूत्र हुए, पुनः सम्यक्त्व को उत्पत्ति के प्रतिपादन में एक सूत्र हुआ, पुनः चारित्र भी मोक्ष का कारण है, ऐसा सूचित करते हुए एक सूत्र हुआ, अनंतर व्यवहार निश्चय चारित्र के अंतर्गत व्यवहार-निश्चय तपश्चरण को कहने की मुख्यता से एक सूत्र हुआ, इस