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नियमसार-प्राभृतम्
१७ जो साह सया रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं पजहदियः साधुः सदा सर्वकालं रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणाम प्रजहाति त्यजति । तस्सेव विदियबदं होदि-तस्यैव द्वितीयव्रतं भवति ।
तथाहि---भाषा द्वादशधा, अभ्याख्यानकलहपैशुन्याबद्धप्रलापरस्य रत्युपषिनिकृत्यप्रणतिमोषसम्यग्दर्शनमिथ्यावर्शनवचनभेदेन ।।
एतासु भाषासु सम्यग्दर्शनवचनं विहाय शेषास्त्याज्याः। यत् अन्यदपि वचनं परपरितापफर तत्सत्यमपि भवेतहि असत्यमेव, अप्रशस्तवचनेऽन्तर्गतत्वात् । अतः कारणात् रागद्वेषमोहाविभावेन सर्वमप्रशस्त रूपमसत्यवचनं त्यक्त्वा प्रशस्तं आगमानुकूलं सत्यवचनं यो ब्रदीति तस्य साधोः द्वितीयं सत्यमहाव्रतं जायते । सत्यवतप्रमाण इह सर्वजमविश्वासी बासिद्धिश्च जायते । परंपरयाऽयं व्रती दिव्यध्वनिरूपवचनस्य भर्ता भवति । तदा स्वस्य दिव्यवचनामृतेन असंख्यभव्यान् छोड़ देता है (तस्सेव विदिय वदं होदि) उसके हो दूसरा सत्यव्रत होता है ।।५७।।
टीका-जो मुनि हमेशा के लिये राग द्वेष या मोह से असत्य बोलने का त्याग कर देते हैं उनके दुसरा सत्य महावत होता है । उसी को विशेष रीति से कहते हैं-भाषा बारह प्रकार की है.----अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य-चुगली, अबद्धप्रलापअसंदर्भित वचन, रति-राग के वचन, अरति-अरुचि के बचन, उपाधि-परिग्रह की भाषा, निकृति-ठगने के बचन, अप्रणति-नमस्कार को नहीं करने के गर्विष्ठ वचन, असत्य वचन, सम्यग्दर्शन के वचन और मिथ्यादर्शन के वचन ।
इनमें से सम्यग्दर्शन के वचन के अतिरिक्त शेष ग्यारहों प्रकार के वचन त्याग करने योग्य हैं। जो भी वचन पर को पीड़ा पहुंचाने वाले हैं वे सत्य भी हों फिर भी असत्य ही हैं, क्योंकि वे अप्रशस्त वचन में अंतर्भूत हैं । इस कारण रागद्वेष मोह आदि भाव से जो सभी अप्रशस्त बचनरूप असत्य वचनों को छोड़कर प्रशस्त आगम के अनु कल सत्य वचन बोलते हैं, उन साधुओं के यह द्वितीय सत्य महावत होता है ।
__ सत्य व्रत के प्रभाव से यहाँ पर सर्वजन में विश्वास हो जाता है और वचनसिद्धि भी हो जाती है । पुनः ये मुनि परंपरा से दिव्यध्वनि के स्वामी हो जाते हैं, तब वे अपने दिव्य वचनामृत से असंख्य भव्यों को तृप्त करते हैं। यह व्रत भी