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नियमसार-प्राभूतम्
१५९ अधुना प्रकारान्तरेण तयोरेव लक्षण प्रतिपादयन्त्याचार्याः-- . चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं ।
अधिगमभावो गाणं हेयोपादेयतच्चाणं ॥५२॥
चलमलिण मगाठत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं-चलमलिनमगाढत्वविजितश्रद्धानम् एव सम्यक्त्वं चलमलिनागाहदोषैः रहितमेव श्रद्धानं सम्यक्त्वम् । हेयोपादेयतच्चाणं अधिगमभावो णाणं-हेयोपादेयतत्त्वानामधिगमभावो ज्ञानमिति ।
___ इतो विस्तरः-यथा एकमेव जलं नानाकल्लोलरूपेण परिणमति, तथैव सर्वतीर्थंकराणामहतां या समानानन्तशक्तो सत्यामपि शांतिजिनेश्वरः शांति करोति, पाश्र्वनाथश्च का निवारयतीति नानालियो माल चंचला परिणामः स एव चलघोषः। यथा शुद्धोऽपि सुवर्णः मलसंसर्गेण मलिन उच्यते, तथैव शंकाविदोषेषु अन्यतमदोषेण पूर्ण निर्मलत्वं नास्ति स मलदोषो निगद्यते । यथा वृद्धपुरुषस्य हस्तगत दण्डं कंपते तथैव, स्वनि पितजिनमंदिरे ममेवम्, परनिर्माफ्तेि च परस्येवम् इति
पुनः दूसरी तरह से आचार्यदेव इन्हीं दोनों का लक्षण कहते हैं
अन्वयार्थ—(चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं) चल, मलिन और अगाढ दोष रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है। (हेयोपादेयतच्चाणं अधिगमभाबो गाणं) और हेय-उपादेय तत्त्वों का जानना सम्यग्ज्ञान है ॥५२॥
टीका-चल, मलिन और अगाढ़ दोषों से रहित श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है। हेय-उपादेय तत्त्वों को समझ लेना सम्यग्ज्ञान है। उसी को कहते हैं जैसे एक ही जल नाना लहरों से परिणमन करता है, उसी प्रकार सभी तीर्थङ्करों के अथबा सभी अर्हन्तों के समान अनन्त शक्ति होने पर भी "शांतिनाथ भगवान शांति करते हैं, पार्श्वनाथ भगवान् संकट को दूर करते हैं। ऐसा अनेक विषयों में जो मन चलायमान होता रहता है, वहीं चल दोष है। जैसे शुद्ध भी सोना मल के संसर्ग से मलिन कहलाता है, वैसे ही शंकादि दोषों में किसी एक दोष से पूर्ण निर्मलता नहीं रह सके वह मल दोष है। जैसे वृद्ध पुरुष के हाथ में पकड़ा हुआ डण्डा कापता रहता है, वैसे ही अपने द्वारा बनवाये गये जिनमंदिर में "यह मेरा है", पर के बनवाये गये में “यह पर का है" ऐसा भाव होना अगाढ़