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नियमसार-प्राभृतम् विभ्रमविजितं संशयविपर्ययानध्यवसायरहितं यज्ज्ञानं तत् संज्ञानं सम्यग्ज्ञानं भवति ।
आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानं सम्यक्त्वम्, तत्र तु विधिमुखेन कथनमत्र तु निषेधमुखेन । उभयकोटिस्पशिज्ञान संशयः, यथाऽयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा इति । परस्परसापेक्षनयद्वयेन वस्तुपरिज्ञानाभावो विमोहः । गच्छत्तणस्पर्श वद्दिमोहबद्वाऽयं दोषः। अनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्यक्षणिककान्ताविरूपेण ग्रहण विभ्रमः, शक्तिकायां रजतविज्ञानवश्यं जायते । एतैषिविजितं यज्ज्ञानं तत्सम्यग्ज्ञानं भवति । यद्यपि सम्यक्त्वोत्पत्त्यनंतरमेव सम्यग्ज्ञानमाविर्भवति, तथापि उभयोर्लक्षणं पथक्पृथक् एव । इदं सम्यक्त्वं ज्ञानं च चतुर्थगुणस्थानात् प्रादुर्भवति । तदेव मोक्षप्रासादस्य प्रथम सोपानमिति निश्चित्य सम्यक्त्वं लब्ध्वा प्रमादं परिहत्य सततं तद्रत्नं रक्षणीयमेव ॥५१॥
तत्त्वों का जो श्रद्धान है, वही सम्यक्त्व है । तथा, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है ।
वहाँ गाथा ५वीं में आप्त आगम और तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है और यहाँ गाथा ५१वीं में मिथ्या अभिप्राय से रहित श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है । सो वहाँ पर विधिमुख से कथन है और यहाँ पर निषेधमुख से कथन है ।
उभयकोटि स्पर्शी जान को संशय कहते हैं, जैसे यह टूठ है या पुरुष ? परस्पर सापेक्ष दोनों नयों से वस्तु का ज्ञान न होना विमोह है, जैसे गमन करते हुए पुरुष के पैर में तृण से लग जाने पर "कुछ लग गया है ?" ऐसा विकल्प होना अथवा दिशाभ्रम हो जाना। अनेकान्तात्मक वस्तु को “यह नित्य ही है, या क्षणिक ही है" ऐसा एकान्तरूप से ग्रहण करना विभ्रम है, जैसे सीप में चाँदी का ज्ञान कर लेना । इन तीनों दोषों से रहित जो ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान होता है।
यद्यपि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के अनन्तर ही सम्यग्ज्ञान प्रकट हो जाता है, फिर भी दोनों के लक्षण पृथक् पृथक् ही हैं। यह सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों चौथे गुणस्थान से उत्पन्न हो जाते हैं । ये ही मोक्ष-महल की पहली सीढ़ी हैं, ऐसा निश्चय करके सम्यक्त्व को प्राप्त कर प्रमाद को छोड़कर सतत ही इस रत्न की रक्षा करनी चाहिए ॥५१॥ १. बुहृद्व्यसंग्रह, गाथा ४२, टीका में ऐसा ही लक्षण है।