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नियमसार-प्राभृतम् असंयतसम्यग्दृष्टिदेशसंयतो वा निश्चयनयेन शक्तिरूपेण स्वभावदृष्टया वा स्वमात्मानमेभ्यो भिन्नमेव श्रद्दधाति । तदनु सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपे निजपरमात्मन्येव स्थातुमिच्छन् सन् व्यवहारचारित्रबलेन प्रयतते ।
ननु पूर्वोक्तेषु भावेषु मध्ये औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकोदयिकभावा अपि सन्ति । अतः विविधसम्यक्त्वं संयमासंयमसरागसंयमोपशमक्षायिकचारित्रावयश्चापि हेया भविष्यति मनुष्यगत्यायौबयिकभावाश्च ?
सत्यम, प्रागेव कथितमास्ते, शुद्ध नयेन जीवस्य कर्ममलसंपर्काभावे इमेऽपि सर्वे सम्यक्त्वचारित्रादयो भावा हेया एव, न तु अशुद्धनयेन । यतो व्यवहारनयेन जीवस्य कर्मबंधोऽस्ति, ततः तत्परिहरणाय रत्नत्रयस्यान्तर्गताः सम्यक्त्वादय उपादेया अपि । इति ज्ञात्वा एकांतदुराग्रहो मा भूत, अतः स्वयोग्यतानुरूपेण नविवक्षा. माश्रित्य व्यवहारमोक्षमार्गसाधनबलेन निश्चयमोक्षमार्ग साधयित्वा सिद्धिप्रासादा. रोहणं कर्तव्यम् ।।५।।
निर्णीत किए जाते हैं, फिर भी असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा देशसंयत श्रावक निश्चयमय से, शक्तिरूप से या स्वभावदृष्टि से अपनी आत्मा को इन सभी से भिन्न ही श्रद्धान करता है । अनंतर सकल विमल केवलज्ञान दर्शन स्वरूप अपनी परमात्मा में ही स्थित होने की इच्छा रखता हुआ व्यवहार चारित्र के बल से प्रयत्न करता है।
शंका-पूर्वोक्त भावों में औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और औदयिक भाव भी हैं। अतः उपशम, क्षायिक, क्षायोपशामक ये तीनों सम्यक्त्व, संयमासंयम, सरागसंयम, उपशम चारित्र और क्षायिक चारित्र आदि भाव भी हेय हो जावेंगे तथा मनुष्यगति प्रायु आदि औदयिक भाव हैं, वे भी हेय हो जायेंगे ? ।
समाधान-ठीक है, पहले ही कहा है कि शुद्धनय से जीव को कर्ममल का सम्पर्क नहीं है, अतः ये भी सभी सम्यक्त्व, चारित्र आदि भाव हेय ही हैं। किन्तु अशुद्धनय से हेय नहीं हैं, क्योंकि व्यवहारनय से जीव के कर्मबन्ध है, अतः उसको दूर करने के लिए रत्नत्रय के अन्तर्गत होने से सम्यक्त्व आदि भाव उपादेय भी हैं। ऐसा जानकर एकान्त दुराग्रह न हो जावे इसीलिए अपनी योग्यता के अनुरूप नयों का आश्रय लेकर व्यवहार मोक्षमार्गरूप साधन के बल से निश्चय मोक्षमार्ग को साथ करके सिद्धिप्रासाद पर आरोहण करना चाहिये ॥५०॥