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नियमसार-प्रामृतम् एतत् सम्यग्दर्शनस्य लक्षणम् । सम्यग्ज्ञानस्य लक्षणमणि प्रकारान्तरेण वर्तते । तद्यथा-स्वात्मतत्वमुपादेयं तद्वयतिरिक्तं यद् जीयाजीवादितत्त्वं तत्सब हेयम् । हेयोपादेयतत्त्वानामधिगमो बोधः सम्यग्ज्ञानमिति ।
इदमत्र तात्पर्यम्--व्यवहारनयेन आप्तादिश्रद्धानं दृढीकृत्य निश्चयनयेन सिद्धसदृशनिजपरमात्मतत्त्वस्य भावनया स्वशक्तिमुपवयता सता त्वया स्वानन्तचतुष्टयव्यक्त्यर्थं प्रयत्नो विधेयः ॥५२॥ इतः पर्यः सम्यग्दर्शनशानयोर्लक्षणं व्याल्माय अधुना मम्यक्त्वस्योत्पत्तिकारणं निगदन्त्याचार्य:
सम्मत्तस्य णिमित्तं, जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा।
अंतरहेऊ भणिदा, दसणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥ ___ यहाँ तक सम्यग्दर्शन का लक्षण किया है। आगे सम्यग्ज्ञान का लक्षण भी दूसरे प्रकार से कहते हैं---
स्वात्मतत्त्व ही उपादेय है, उससे भिन्न जो भी जीव-अजीव आदि तत्व हैं वे सब हेय हैं । इन हेय-उपादेय तत्त्वों का अधिगम-ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है ।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि व्यवहारनय से आप्त आदि का श्रद्धान दृढ़ करके निश्चयनय से सिख समान अपने परमात्मतत्त्व की भावना से अपनी शक्ति को बढ़ाते हुए अपने अनंतचतुष्टय को प्रगट करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये ।
भावार्थ-यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि महान् अध्यात्म शिरोमणि श्री कुन्दकुन्ददेव इस ग्रन्थ के कर्ता हैं और यह नियमसार भी अध्यात्म ग्रन्थ है, फिर भी यहाँ पर उन्होंने सम्यग्दर्शन के तीनों लक्षण ही व्यवहार परक किये हैं, जो व्यवहार सम्यग्दर्शन को हेयष्टि से देखते हैं, उन्हें इन पर विचार करना चाहिये । तथा कुन्दकुन्द के भी पहले श्री गुणधर आचार्य हुए हैं, उन्होंने भी व्यवहार परक ही लक्षण किया है । खास बात यही है कि इस व्यवहार सम्यग्दर्शन से ही निश्चय सभ्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अतः इनमें परस्पर में साध्यसाधनभाव सम्बन्ध है । व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन है और निश्चय सम्यग्दर्शन साध्य है, ऐसा समझना ।।५।।
यहाँ तक सम्यग्दर्शन और ज्ञान का लक्षण कहा, अब आचार्य सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारण बतलाते हैं
अन्ययार्थ—(जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा) जिनसूत्र और उनके जानने