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नियमसार - प्राभूतम्
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"जाइस्सर जिर्णाबनबं सर्णेहि विणा उप्पज्ज माणणइसग्गिय पढमसम्मत्तस्स असंभवादो ।"
अन्यच्च धवलाय --
कथं जिर्णा बसणं पढमसम्मत्तुष्पत्तीए कारणं ? जिर्णाबबदंसणेण धित्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मरुलायस्स खयदंसणादो ।'
एतत्कथनेन ज्ञायते नैसर्गिकसम्यग्दर्शनमपि जातिस्मरणं जिनबिंबदर्शनं वा बाह्यकारणमपेक्षत एवं द्वयोरेकतरेण कारणेन भवितव्यमेव, अन्यथा नोपद्यते । अतः बहिरंगकारणाभावे अंतरंगकारणमसंभवम् । ततश्च नाकिञ्चित्करं बाह्य निमित्तम् । fore, क्षायिक सम्यक्त्वं तीर्थंकर प्रकृतिबंधश्चापि केवलिश्रुतकेच लिपादमूले सलि एव भवति । एतदपि बाह्य निमित्तकारणमेव ।
शंका -- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - उसी ग्रन्थ की धवला टीका से जाना देखिये – जाति स्मरण और जिनबिंब दर्शन इन दोनों में से नैसर्गिक प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति असंभव है । पुनः उसी धवला टीका में कहा है कि
जाता है । उसी को किसी एक के बिना
शंका- जिनबिंब दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण कैसे है ? समाधान --- जिनबिंब के दर्शन से निधत्त - निकाचित भी मिध्यात्व आदि कर्म-समूह का क्षय देखा जाता है ।
इस कथन से जाना जाता है कि नैसर्गिक सम्यग्दर्शन भी जातिस्मरण अथवा जिनदर्शन इन बाह्य कारणों की अपेक्षा रखता ही है । इसलिये बहिरंग कारण के अभाव में अंतरंग कारण असम्भव हैं । इसी हेतु से बाह्य निमित्त अकिचित्र नहीं है । दूसरी बात यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व और तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में ही होता है और ये भी बाह्य निमित्त कारण ही हैं ।
शंका--तब बाह्य कारणों के मिल जाने पर सभी जीवों को सम्यक्त्व होना चाहिये, परंतु ऐसा नहीं दिखता है ?
१. धवला पु० ६, ०४२७