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नियमसार-प्राभृतम्
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पर्यायाश्च । परदव्वं - परद्रव्यं ते सर्वे परद्रव्यमेव पुद्गलकर्मभिः निमितत्वात् । पुनश्च कथंभूतास्ते ? परसहावं - परस्वभावाः, औपाधिकत्वात् । इदि हेयं इति हेतोः, हेयं हातुं योग्यम् । तर्हि कि उपादेयम् ? अप्पा उवादेयं - आत्मा एव उपादेयः । कथं ? सगदव्वं स्वषद्रव्यम् अत एव उपादेयम् । पुनश्च तत्कथम् ? अंतरतच्चं हवेतदेव स्वकद्रव्यं अंतस्तत्त्वं भवेत् इति हेतोः उपादातुं योग्यमिति ।
अतः
तद्यया - शुद्धबुद्धैकस्वरूपनिजात्मतत्त्वं मुक्त्वा अन्ये च ये जीवाजीवाक्यः तेषां औपशमिका दिबहुविधविकल्पपरिणामाः नानाविधव्यंजनपर्यायाश्च ते सर्वेऽपि परद्रव्यसंबंधत्वात् परद्रव्यं द्रव्यकर्मोदये सति समुद्भूतत्वात् परस्वभावाश्च, कारणात् हेयं स्वक्तुं योग्यमेव । आत्मा एव स्वद्रव्यं स्वास्तित्वस्वरूपत्वात् तवेव अन्तस्तस्वं अंतःस्वरूपं अतः तवेवोपादेयं सततं ग्रहीतुं योग्यम् । यद्यपि व्यवहारनयेन ते सर्वे भावाः सिद्धांत प्रोक्तत्वात् सत्याः, अतः उपावेया न च सर्वथा हेमास्तथापि निश्चयनयेन शुद्धात्मस्वरूपा न भवति इति हया अपि । किश्व, प्रारंभावस्यायां पूर्वोक्तभावैः इंद्रियबलाविद्रव्यभावप्राणजींवा ज्ञायन्ते निर्णीयन्ते तथापि
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द्रव्य ही हैं, क्योंकि पुद्गल द्रव्य से बने हुए हैं । इसलिये औपाधिक होने से वे परस्वभाव हैं, अतः छोड़ने योग्य हैं। आत्मा ही उपादेय है, क्योंकि वह स्वकीय द्रव्य है । वही अंतस्तत्त्व है, इसीलिये वह ग्रहण करने योग्य है ।
शुद्ध बुद्ध एक स्वरूप अपना जो आत्मतत्त्व है, उसको छोड़कर और जो भी जीव अजीव आदि हैं, उनके औपशमिक आदि बहुत प्रकार के विकल्परूप परिणाम हैं और जो अनेक प्रकार की व्यंजन पर्यायें हैं वे सभी परद्रव्य से संबंधित होने से परद्रव्य हैं । ये सब द्रव्य कर्म के उदय से उत्पन्न होने से परस्वभाव है, इसलिए हेय हैं छोड़ने योग्य हैं । आत्मा ही स्वद्रव्य है अपने अस्तित्वरूप होने से वही अंतस्वरूप है, अतः वही उपादेय है- सतत ग्रहण करने योग्य है ।
यद्यपि ये सभी भाव व्यवहारनय की अपेक्षा सिद्धांत में कहे जाने से सत्य हैं अतः उपादेय हैं, सर्वथा हेय नहीं हैं फिर भी निश्चयनय से ये शुद्ध आत्मा के स्वरूप नहीं है इसलिए हेय भी नहीं हैं । दूसरी बात यह है कि प्रारम्भ अवस्था में इन पूर्वोभावों से और इन्द्रिय बल आदि द्रव्य भाव प्राणों से जीव जाने जाते हैं