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नियमसारामृतम् श्रद्दधानस्तत्त्वविचारकाले सामायिके वा स्वमात्मानं शुद्धं सिद्धसदृशं श्रनुत्ते, जानाति, न च अनुभवति । पुनः व्यवहारचारित्रबलेन पंचगुरूणां प्रसादेन च चिच्चतन्यपरिणतिरूपनिश्चयरत्नत्रयमवाप्य सर्वसंकल्पविकल्परहितशुद्धपरमात्मतस्वव्याने स्थित्वा स्वशुद्धात्मानमेव अनुभवति । ततश्च क्रमेण सर्वकर्माणि हत्वा स्वयमेव सिद्धो भवति । इति निश्चित्यानवरतं निजतत्यप्राप्त्यर्थमेव प्रयत्नो विधातव्यः, 'सिद्धसदृशोऽहम्' इति मत्वा अहंकारवशेन प्रमावीभूय विषयकषायमय-गृहस्थाश्रमे एव न आसक्तिविधेया इति ।।४९॥ एषु सर्वेषु मध्ये किं हेयं किं मा उपादेयम् ? इति प्रश्नै सति प्रत्युत्तरं ददत्याचार्याः--
पुवुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं ।
सगदवमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ॥५०॥ पुव्वुत्तसयलभावा-पूर्वोक्तसकलभावाः पूर्व कथिताः। ये भावाः परिणामाः
से जीव के यथोक्त स्वरूप का श्रद्धान करते हुए तत्त्व के विचार के समय अथवा सामायिक के समय अपनी आत्मा को शुद्ध सिद्धसमान श्रद्धान करता है और जानता है, किंतु अनुभव नहीं करता । पुनः व्यवहार चारित्र के बल से और पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से चिच्चैतन्य की परिणतिरूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त कर सर्वसंकल्प विकल्प रहित शुद्ध परमात्मतत्व के ध्यान में स्थित होकर अपनी शुद्ध आत्मा का ही अनुभव करता है । इसके बाद क्रम से सर्व कर्मों का नाश कर स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। ऐसा निश्चय करके हमेशा निज तत्त्व की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए । “और मैं सिद्धसमान हूँ" ऐसा मानकर अहंकार के वश से प्रमादी होकर विषय कषायमय ऐसे गृहस्थाश्रम में ही आसक्ति नहीं रखनी चाहिए ॥४९॥
इन सभी के मध्य क्या हेय है और क्या उपादेय है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य प्रत्युत्तर देते हैं
अन्वयार्थ-(पुवुत्तसयलभावा परदब्बं परसहाव) पूर्वोक्त सकल भाव परद्रव्य हैं और परस्वभाव हैं (इदि हेयं) इसलिए हेय हैं। (अंतरतच्च अप्पा) अंतस्तत्त्व आत्मा (सगदव्वं) स्वकीय द्रव्य है, (उवादेयं हवे) वही उपादेय है ॥५०॥
टोका-पूर्व में कहे गये जो भी भाव-परिणाम या पर्याय हैं, वे सभी पर