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नियमसार-प्रामृतम् कषायस्यान्त्ये घातिकर्माणि निहत्य अनंतचतुष्टयव्यक्तरूपकार्यसमयसारमवाप्नोति । अनंतरं सर्वकर्मभ्यो विनिर्मुक्तः सन् परमार्थेन परमानंदसंपन्नः परमतृप्तो भवति । इति ज्ञात्वा स्वस्य दोषान् परिहर्तुकामेन त्वया व्यवहारचारित्ररूपः पुपषार्थोऽवलम्बनीयः ॥४५॥
एवं कर्मोपाधिविवर्जितो जीव एय उपादेयः इति प्रतिज्ञाकथनसूचकस्वेन एक सूत्रं, तस्यैव जीवस्य स्वभावधिभावादिस्थानानि न सन्ति इति प्रतिपादनपरत्वेन द्वितीय सत्रं, प्रकृतिस्थित्यादिबंधाभावसूचकत्वेन तृतीयं सूत्रम्, औपशामिकादिचतु
करता हुआ क्षीण कषाय गुणस्थान के अन्त्य समय में घाति कर्मी का नाश करके अनंतचतुष्टय की प्रकटतारूप कार्य समयसार को प्राप्त कर लेता है । अनतर सर्वकर्मों से मुक्त होता हुआ परमार्थ से परमानन्द से संपन्न परमतृप्त हो जाता हैं। ऐसा जानकर अपने दोषों का परिहार करने की इच्छा रखते हुये तुम्हें व्यवहार चारित्ररूप पुरुषार्थ का अवलंबन लेना चाहिये ।
भावार्थ- प्रत्येक जीव में चाहे वह निगोदिया हो या अभव्य, चाहे सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सभी जीवों में शुद्ध निश्चयनय से स्वभावस्थान, मानापमानस्थान आदि से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण सभी विभाव भाव नहीं हैं
और वर्ण रस से लेकर आकार शरीर संहनन आदि पुद्गल कृत रचनायें भी नहीं हैं । मात्र जीत्र शुद्ध सिद्धसदृश टांकी से उकेरे हुने एक जानने रूप ज्ञायक भाव स्वरूप ही है । जो कुछ भी संसारी और मुक्त को अपेक्षा भेद दिख रहे हैं, अथवा जो कुछ भी हम या आपको मनुष्यपर्याय में सुख-दुःख दिख रहे हैं, वे सब व्यवहारनय की अपेक्षा से ही हैं, या अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से भी हैं । इन नयों की अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप को समझ कर आत्मा शाश्वत सुखी कैसे बने ? अपने स्वभाव को कैसे प्राप्त कर लेवे ? यही उपाय करना उचित है। इसी से मनुष्यजन्म की सफलता है ॥४५॥
इस प्रकार कर्मों की उपाधि से रहित जीव ही उपादेय है" ऐसी प्रतिज्ञा के कथन को सूचित करते हुये एक गाथा सूत्र हुआ, उसी जोव के स्वभाव विभाव आदि स्थान नहीं हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हुये दूसरा गाथासूत्र हुआ, जीव में प्रकृति स्थिति आदि बंधों का अभाव है, ऐसा बतलाते हुये तीसरा गाथासूत्र हुआ, जीब में