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नियमसार-प्राभृतम् परिपहरागशल्यनानाविधदोषेच्छाक्रोधमानमलिप्तस्तथापि निश्चयनयेन एभ्यो दोषेभ्यः शश्वदस्पष्ट एवं वर्तते, अतः इमे दोषा न तस्य स्वभावाः, सर्वदा परनिमित्तेन समुत्पन्नत्वात् । इति ज्ञात्वा शन. शन: सचरिग्रहान् हित्वा स्फुटं स्वस्यात्मा निर्मलीफर्तव्यः, प्रमादमवलम्ब्य न च वञ्चनीयः ॥४४॥ तहि जीवस्य वर्णादयोऽपि सन्ति न था इत्याचा कायामाहः आचार्या:--
वण्णरसगंधफासा थीपुंसणओसयादिपज्जाया। संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ॥४५॥
वण्ण रसगंधफासा-वर्णरसगंधस्पर्शाः । थीपुंसणओसयादिपज्जाया-स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः। संटाणा संहणणा-संस्थानानि संहननानि । सब्वे जो सन्ति-सवें न सन्ति । फस्येति ? जीवस्स-शुद्धबुद्धकस्वभावस्य जीवस्य इति ।
तयाथा--पंच वर्णाः, पंच रसाः, द्वौ गन्धौ, अष्टौ स्पर्शा:-इमें स्पष्टतया पुद्गलस्य गुणा एव । अतः निश्चयनयेन जीवस्य कथं भवन्ति ? न कथमपि इति । में परिग्रह, राग, शल्य, नानाविध दोष, इच्छा, क्रोध, मान और मदों से लिप्त है। फिर भी निश्चयनय से इन दोषों से सदा काल अस्पृष्ट ही रहता है, अतः ये दोष इस जीव के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि ये सर्वदा पनिमित्त से ही उत्पन्न होते हैं। ऐसा जानकर शनैःशनैः सर्वपरिग्रह को छोड़ कर स्पष्टतया अपनी आत्मा को निर्मल करना चाहिये, प्रमादी बनकर अपनी वंचना नहीं करनी चाहिये ।।४४।।
तब तो जोव के वर्ण आदि भी हैं या नहीं ? ऐसो आशंका होने पर आचार्य कहते हैं
अन्वयार्थ-(जीवस्स) जीव के (वण्णरसगंधफासा) वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, (पीपुंसणओसयादिपज्जाया) स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें (संठाणा संहणणा सव्वे णो संति) संस्थान और संहनन ये सब नहीं हैं ।।४५।।
___टीका–वर्ण रस' गंध स्पर्श, स्त्री पुरुष नपुंसक आदि पर्यायें, संस्थान और संहनन ये सभी जीव के नहीं हैं । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श के स्पष्टरूप से पुद्गल के ही गुण हैं। अत: निश्चयनय से ये जीब के कैसे होंगे ?