________________
1
नियमसार-प्राभृतम्
९३
उक्तं च श्रीमदकलंकदेवैः --- " प्रदेशमात्र भाविभिः स्पर्शादिभिः गुणैः सततं परिणमन्त इत्येवं अध्यन्ते शब्दघन्ते ये ते अणथः । सौक्ष्म्यादात्मादयः आत्ममध्या आत्मान्ताश्च | स्थौल्यभावेन ग्रहणनिक्षेपणादिव्यापारास्कंद (न्ध ) नात् स्कंधा इति संज्ञायन्ते । रूढौ क्रिया क्यचित् सती उपलक्षणत्वेनाश्रिता इति ग्रहणादिव्यापारायोग्येष्वपि चणुकादिषु स्कंधाव्या वर्तते । "
5
इमे परिप्रबंधपरिणामाः स्कंधाः पुद्गलद्रव्यस्य विभाव पर्यायाः, तीयेन सह संबंध करणत्वात् ।
स्वजा
अथवा--' - "सद्दी बंधो सुमो धूलो संठाण भेद तम छाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्यस्स पज्जाया' ।। शब्दबंधसूक्ष्मस्थूल संस्थानभेदसमर छायोद्योतात पसहिता इमे सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य विभाव पर्याया एव, स्कंधरूपेण परिणतत्वात् ।
तात्पर्यमेतत् - एक रसवर्णगन्धद्विस्पर्शाः पुदगल द्रव्यस्य परमाणुनाम्नो भेदस्य
श्रीमान् अकलंकदेव ने कहा भी है
जो प्रदेशमात्र में होने वाले स्पर्श आदि गुणों से सतत परिणमन करते हैं, जो इस प्रकार कहे जाते हैं, वे अणु हैं । सुक्ष्म होने से इनका आत्म-स्वरूप ही आदि है, स्वरूप ही मध्य है और स्वरूप ही अंत है । स्थूलतारूप से ग्रहण करने रखने आदि व्यापार को प्राप्त करने से स्कंध कहलाते हैं । क्रिया कहीं पर रूढ़ि अर्थ में रहते हुए उपलक्षण का आश्रय लेती है, इसलिए ग्रहण आदि व्यापार के अयोग्य भी घणुक आदि में 'स्कंध' यह नाम पाया जाता है ।
जिनमें बंधरूप परिणमन हो चुका है, ऐसे ये स्कंध पुद्गल द्रव्य की विभावपर्यायें हैं, ये स्वजातीय के साथ ही संबंध करते हैं
।
अथवा -
शब्द, बंध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद,
अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं । ये शब्द बंध आदि सब पुद्गल द्रव्य की विभावर्यायें ही हैं, क्योंकि ये स्कंधरूप से परिणत हो चुकी हैं ।
यहाँ अभिप्राय यह हुआ कि एक रस, एक वर्ण, एक गंध और दो स्पर्श
१ तत्त्वार्थचालिक ०५, सू. २५, वार्त्तिक १-२ ॥ २. द्रव्यसंग्रह, गाथा १६ ।