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सम्यग्ज्ञानाधिकारः स्वपरभेदविज्ञानजनितस्वशुद्धात्मतत्त्व-श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणदर्शनविशुद्धपादिभावनाबलेन समुत्पादिततीर्थकरप्रकृतिनामकर्मनिमित्तेन येषां जन्माभिषेको येषु पंचमेरुषु जायते, तेभ्यस्तत्राशीतिजिनचैत्यालयेभ्यश्च नमो नमः ।।
___ अथ तावत् भवधिज्ञानप्रतिपादनपरः सम्यग्यानाख्यस्तृतीयोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्राष्टवशसूत्रेषु मध्ये 'जीवादिबहिसच्चं हेयं' इत्यादि-गाथासूत्रमादि कृत्वा जीवस्य के के भावा न सन्तीति व्याख्यानमुख्यत्वेन अष्टौ सूत्राणि, तबनु 'अरसमस्वमगंध'-इत्यादिगाथासूत्रमादि कृत्वा जीवस्य किस्वरूपम् इतिप्रतिपादनपरत्वेन पंच सूत्राणि, तत्पश्चात 'विवरीयाभिणिधेसविवज्जिय'-इत्याविगाथासूत्रमादि कृत्वा सम्यग्दर्शनज्ञानस्य लक्षणोत्पत्ति कारणमुख्यत्वेन व्यवहारनिश्चयचारित्रकथनसूचनपरत्वेन च पंच सूत्राणि प्रतिपादयन्तीति त्रिभिरन्तराधिकारैः समुदायपातनिका । वादो हेयोपादेयतत्त्वं प्रतिपादयन्तो भगवन्तः श्रीकुंदकुंददेवाः प्राहुः
जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा ।
कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जायेहि वदिरित्तो ॥ ३८ ॥
अब भेदविज्ञान को प्रतिपादन करने वाला सम्यग्ज्ञान नाम का तीसरा अधिकार प्रारंभ हो रहा है। उसमें अठारह गाथासूत्र हैं, उनमें से "जीवादिबहित्तच्चं हेयं" इत्यादि गाथासूत्र से लेकर जीव के कौन-कौन भाव नहीं होते हैं ? इस व्याख्यान की मुख्यता से आठ गाथासूत्र हैं। इसके बाद "अरसमरूवमगंधं" इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके जीव का क्या स्वरूप है? इसको प्रतिपादित करते हुए पाँच गाथासूत्र हैं | इसके पश्चात् "विवरीयाभिणिवेसविबज्जिय" इत्यादि गाथासूत्र को आदि करके सम्यग्दर्शन ज्ञान का लक्षण और उनकी उत्पत्ति के कारण की मुख्यता से तथा व्यवहार निश्चय चारित्र के कहने में तत्पर ऐसे पांच गाथासूत्रों का प्रतिपादन करेंगे। इस प्रकार तीन अन्तराधिकारों से यह समुदायपातनिका है।
उसमें सर्वप्रथम हेय-उपादेय तत्त्व का प्रतिपादन करते हुए भगवान् श्रीकुंदकंददेव कहते हैं
___ अन्वयार्थ-- (जीवादिबहित्तच्चं हेयं) जोवादि बाह्य तत्त्व हेय हैं, (कम्मो